
डॉ. अजीत रानाडे, वरिष्ठ अर्थशास्त्री , सुशील वालुंज,शोधार्थी (द बिलियन प्रेस)
हर सुबह लाखों आइटी कर्मचारी अपने कामकाज की वजह से वीडियो कॉल- ईमेल या ऑफिस पहुंचने की भाग-दौड़ में व्यस्त होते हैं। बाहर से उनकी मुस्कानें, हल्की बातचीत और उनके कामकाज के नतीजे सामान्य लगते हैं, लेकिन इन मुस्कानों के पीछे एक अदृश्य संघर्ष चल रहा होता है- चिंता, थकान, नींद की कमी व निसहाय होने की भावना। ये सब ऐसी मौन महामारी के लक्षण हैं, जिसे बहुत कम लोग गंभीरता से ले रहे हैं। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती ऐसा अदृश्य संकट है, जो उत्पादकता, रचनात्मकता व सामाजिक ताने-बाने को चुपचाप खोखला कर रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा भारत को अगले दस वर्षों में एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान पहुंचा सकती है। यह सिर्फ इलाज का खर्च नहीं, बल्कि इसमें काम में अनुपस्थिति, घटती नवाचार क्षमता और प्रेरणा की कमी का मूल्य भी शामिल है। जब कोई युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर या बैंक अधिकारी तनाव में अपनी जान दे देता है तो यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं होती- यह हमारी संस्थागत असंवेदनशीलता का संकेत है।
मानसिक स्वास्थ्य को सार्वजनिक और आर्थिक नीति के केंद्र में न रखकर, इसे केवल निजी समस्या मान लेना भी एक गहरे रोग का लक्षण है। एनसीआरबी के अनुसार, भारत में आत्महत्या दर 2017 में प्रति लाख 9.9 से बढ़कर वर्ष 2022 में 12.4 हो गई। छात्र आत्महत्याएं 10 वर्षों में 65 प्रतिशत बढ़ी हैं। इन आंकड़ों के पीछे है- शिक्षा का दबाव, बेरोजगारी और अकेलापन। शोध बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च किया गया हर एक रुपया उत्पादकता में चार रुपए की वृद्धि करता है। वर्ष 2017 का मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ऐतिहासिक था, पर अमल कमजोर रहा। बीमा कंपनियां अब भी मानसिक बीमारियों के दावे सीमित करती हैं और कई राज्यों में समीक्षा बोर्ड निष्क्रिय हैं।
भारत की युवा पीढ़ी भावनात्मक दबाव में है। महामारी ने अकेलेपन, निश्चितता और डिजिटल निर्भरता को बढ़ाया। स्नातक युवाओं में बेरोजगारी दर 30 प्रतिशत से अधिक है। कई कंपनियां माइंडफुलनेस सेशन और कर्मचारी सहायता कार्यक्रम चला रही हैं, पर असली सुधार तब होगा जब कार्यस्थलों पर मानसिक थकान पर खुलकर बात करने का माहौल बने। विडंबना यह है कि आज हम मानसिक स्वास्थ्य के बारे में पहले से कहीं अधिक बात करते हैं। फिर भी जागरूकता पहुंच में नहीं बदल पाई। परामर्श महंगा है, सरकारी अस्पतालों में भीड़ है और स्कूलों में काउंसलर दुर्लभ हैं। इस संकट से निपटने के लिए कुछ ठोस कदम आवश्यक हैं।
पहला, सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का कम से कम पांच प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च हो। दूसरा, सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों को मनो-सामाजिक प्रशिक्षण और आत्महत्या-निरोध सिखाया जाए। तीसरा, बीमा कंपनियां मानसिक बीमारियों को अनिवार्य रूप से कवर करें। चौथा, मानसिक स्वास्थ्य को पोषण और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जोड़ा जाए। पांचवां, टेली-काउंसलिंग और एआइ का विस्तार हो, पर मानवीय सहानुभूति सर्वोपरि रहे।मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी केवल अमानवीय नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी नुकसानदेह है। हर रोकी गई आत्महत्या, हर सुलभ थेरेपी सत्र और हर मिटाया गया कलंक राष्ट्र निर्माण की दिशा में कदम है।
Published on:
23 Nov 2025 12:19 pm
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