
योगेश कुमार गोयल, पर्यावरण विषयों के जानकार
वायु प्रदूषण भारत में अब केवल पर्यावरण या मौसम का प्रश्न नहीं रहा, बल्कि सभ्यता के अस्तित्व पर मंडराता ऐसा संकट बन गया है, जो बिना आवाज किए हर सांस के साथ चुपचाप मानव शरीर की प्रत्येक कोशिका में जहर घोल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी साफ है कि भारत की लगभग 84 प्रतिशत जनसंख्या ऐसी हवा में जीने को मजबूर है, जो न केवल अंतरराष्ट्रीय, बल्कि भारत के अपने राष्ट्रीय मानकों से भी काफी नीचे है।
'सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर' (सीआरईए) की हालिया रिपोर्ट ने भी वायु प्रदूषण की एक भयावह तस्वीर सामने रखी है। दिल्ली सबसे प्रदूषित राज्य के रूप में उभरा है, जहां वार्षिक औसत पीएम 2.5 स्तर 101 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया, जो भारतीय मानक से ढाई गुना और विश्व स्वास्थ्य संगठन की सीमा से 20 गुना अधिक है। चंडीगढ़, हरियाणा, त्रिपुरा, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, मेघालय और नागालैंड भी राष्ट्रीय मानक से ऊपर हैं। वायु प्रदूषण का यह संकट केवल सर्दियों का नहीं है, बल्कि सीआरईए की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि सर्दियों में 82 प्रतिशत जिले, गर्मियों में 54 प्रतिशत, मानसून के बाद 75 प्रतिशत और मानसून के दौरान भी 10 प्रतिशत जिले प्रदूषण मानकों से ऊपर रहे। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि भारत अब बारहमासी प्रदूषण के दौर में प्रवेश कर चुका है, जहां मौसम बदलता है पर प्रदूषण का जहर नहीं।
उत्तर भारत में पिछले दो दशकों में पार्टिकुलेट मैटर के स्तर में 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जिसका सीधा परिणाम जीवन प्रत्याशा में गिरावट के रूप में सामने आया है। वायु प्रदूषण ने उत्तर भारत के लोगों की उम्र में 8 वर्ष तक की कटौती कर दी है। विशेषज्ञों का साफ कहना है कि दिल्ली में प्रतिदिन सांस लेना 20 से 25 सिगरेट पीने जितना घातक है। भारत से बैंकॉक शिफ्ट हुए 'ब्लिंक डिजिटल' के सह-संस्थापक और सीईओ रिक्की अग्रवाल की भावनात्मक लिंक्डइन पोस्ट ने भारत में वायु प्रदूषण और जीवन गुणवत्ता पर गहरी बहस छेड़ दी है। उनके मुताबिक, पांच वर्षों तक संघर्षपूर्ण दुविधा के बाद उन्हें अहसास हुआ कि भारत ने भले ही उन्हें कॅरियर और अवसर दिए लेकिन अब यह स्वस्थ और संतुलित जीवनशैली प्रदान नहीं कर पा रहा। बैंकॉक की स्वच्छ हवा, भरोसेमंद सार्वजनिक सेवाएं, शांत दिनचर्या और बिना संघर्ष के जीवन ने उन्हें वहां बसने के लिए प्रेरित किया। उनका कहना है कि यह भारत से पलायन नहीं, बल्कि बेहतर जीवन की ओर सचेत कदम है। उनका अनुभव यह प्रश्न खड़ा करता है कि क्या आर्थिक विकास की चमक जीवन की बुनियादी जरूरतों (विशेषकर स्वच्छ हवा) से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? उनकी पोस्ट के बाद कई लोगों ने स्वीकार किया कि देश के कई बड़े शहर, खासकर दिल्ली और मुंबई, अब जीवनयापन के लिए चुनौतीपूर्ण होते जा रहे हैं। अधिकांश भारतीयों के लिए देश छोडऩा कोई विकल्प नहीं, इसलिए समाधान यहीं ढूंढना होगा यानी हवा बदले, देश नहीं।
प्रदूषण शरीर को किस प्रकार निगलता है, यह समझना अत्यंत आवश्यक है। केवल तीन दिन प्रदूषित हवा में रहने से नाक-गला जलने लगता है, आंखों में चुभन, हल्की खांसी और थकान शुरू हो जाती है। सात दिनों में यह प्रभाव रक्तचाप व श्वसन तंत्र को प्रभावित करने लगता है। पंद्रह दिनों में बच्चों के फेफड़ों की वृद्धि रुकने लगती है और सांस फूलना, ब्रोंकाइटिस जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। तीस दिनों के बाद यह नुकसान स्थायी हो जाता है और फेफड़ों की क्षमता 10 से 20 प्रतिशत तक घट जाती है। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत 132 गैर-अनुपालन शहरों में वायु गुणवत्ता सुधार के लिए विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं। इन प्रयासों का प्रभाव तभी दिखाई देगा, जब नागरिक भी प्रदूषण रोकने में अपनी जिम्मेदारी निभाएं। दिल्ली की धुंध केवल दृश्यता को नहीं, हमारी सोच को भी धूमिल कर रही है। यह धुंध उन सपनों पर भी परत चढ़ा रही है, जो आने वाली पीढिय़ों को स्वस्थ भविष्य देने की उम्मीद में बुने गए थे। यह धुंध केवल आसमान नहीं ढक रही, हमारी चेतना, बुद्धि, संस्कृति व हमारी आने वाली पीढिय़ों के सपनों को धूसर कर रही है।
पीएम 2.5 के सूक्ष्म कण न केवल हमारे फेफड़ों को छलनी कर रहे हैं, बल्कि हमारे डीएनए को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं, बच्चों के मस्तिष्क विकास को बाधित कर रहे हैं व प्रजनन क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। अब तय करना होगा कि हम भविष्य को स्वच्छ हवा देंगे या धुआं। यह निर्णय अभी लेना है क्योंकि प्रकृति चेतावनी नहीं देती, प्रतिशोध लेती है। उसका प्रतिशोध शुरू हो चुका है। यदि सरकार, समाज और नागरिक मिलकर गंभीरता से कदम नहीं उठाते तो आने वाली पीढिय़ों के लिए स्वच्छ हवा मात्र सपना बनकर रह जाएगी। समाधान सामूहिक प्रयासों से ही संभव है।
Published on:
02 Dec 2025 02:55 pm
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