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ब्रह्म और माया ही शक्तिमान और शक्ति रूप में विश्व निर्माण में प्रवृत्त होते हैं। ये दोनाें अभिन्न हैं। इनका समन्वय ही पूर्णता है। ब्रह्म और माया दोनों में ही कर्ता भाव नहीं है। माया की भूमिका चूंकि ब्रह्म के विस्तार से जुड़ी है, अत: इसका कार्यक्षेत्र दांपत्य कर्म से (प्रजनन कर्म) से जुड़ा रहता है। ऋग्वेद में वर्णन मिलता है-
अपश्यं त्वा मनसा चेकितानं तपसो जातं तपसो विभूतम्।
इह प्रजामिह रयिं रराण: प्र जायस्व प्रजया पुत्रकाम॥ (10.183.1)
पति से पत्नी कह रही है—मैंने बुद्धि से कर्मों को अत्यधिक रूप से जानने वाले, दीक्षा रूप व्रत से पुन: उत्पन्न हुए (दूसरे पूर्व जन्मों के अनुष्ठान किए हुए पुण्य से उत्पन्न हुए) तथा अनुष्ठान किए जाते हुए यज्ञों के कारण सर्वत्र वियात तुहें देखा। हे पुत्रों की कामना करने वाले! वही तुम इस लोक में पुत्र पौत्रादि संतान का आनन्द लेते हुए गर्भाधान के द्वारा पुत्र-पौत्रादि के रूप से प्रजा उत्पन्न करो।
पति उत्तर देता है—हे पत्नी! अपने सौन्दर्य से दीप्तियुक्त शरीर में गर्भाधान रूप कर्म के लिए पति समागम की याचना करते हुए तुहें मैंने बुद्धि से देखा। हे पुत्रों की कामना करने वाली! मेरे समीप आकर अत्यधिक तरुणी हो जाओ। तरुणी होकर गर्भाधान के द्वारा पुत्रों को उत्पन्न करो। (10.183.2)
अगला मंत्र कहता है—मैं होता रूप शाल्यादि औषधियों में फल के लिए गर्भाधान करता हूं। मैं ही अन्य सभी प्राणियों में गर्भ धारण करता हूं तथा भूमि पर सब मनुष्यों को उत्पन्न करता हूं। अन्य स्त्रियों में भी मैं पुत्रों को उत्पन्न करता हूं। मेरे द्वारा किए जाने वाले यज्ञ से सब की उत्पत्ति होने के कारण मैं सबकी उत्पत्ति का मूल स्रोत हूं। (10.183.3)
प्रजा उत्पत्ति कर्म सभी ८४ लाख योनियों में होता है। माया तय करती है कि जीवात्मा को किस योनि में जाना है। जीव किसी भी योनि में जन्म ले किन्तु सृष्टि के सभी तत्व उसके उपादान बनते हैं। देह का निर्माण एक असाधारण प्राकृतिक प्रक्रिया है। दैहिक अंगों के निर्मापक देव भिन्न-भिन्न होते हैं। जीव किस योनि में कौनसी देह धारण करेगा, उसी के अनुरूप देवता अपने-अपने कर्म में जुट जाते हैं। प्रजनन क्रिया कहने को स्थूल क्रिया मात्र है किन्तु सभी देव, पितृ, ऋषि प्राण रूप में इस कर्म में जुड़ते हैं। ब्रह्म सृष्टि रूप में गर्भस्थ होने को, अवतरित होने को उन्मुख हो रहे हैं। ऋग्वेद में वर्णित है कि-
व्यापक देव विष्णु योनि का निर्माण करें। शरीर निर्माता त्वष्टा देव स्त्री-पुरुष के व्यंजक चिह्नों को अंग रूप प्रदान करें। प्रजापति वीर्य सींचन करे। हे पत्नी धारण करने वाले धाता देव तुम्हारे गर्भरूप को धारण करे। तुम स्रावपात वाली और गर्भपात वाली न हो। (10.184.1)
हे सिनीवाली देवी! स्थापित गर्भ को धारण करो। हे सरस्वती! तुम गर्भ को स्थापित करो। हे पत्नी! स्वर्ण कमल के आभूषण धारण करने वाले दोनों अश्विनी कुमार तुम्हारे गर्भ का उत्पादन करें। प्रक्षेपण करें। (10.184.2)
हे पत्नी! तुम्हारे जिस गर्भ को उद्देश्य बनाकर दोनों अश्विनी कुमार देवों ने स्वर्णमयी अरणियों का मंथन किया, ‘तुम्हारे लिए’ हम उस गर्भ का दसवें माह में प्रसव होने के लिए आह्वान करते हैं। (ऋ. 10.184.3)
ऋग्वेद के ये मंत्र सृष्टि के सार्वभौमिक, सार्वकालिक सूत्र हैं। यही ‘यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ का रूप है। यहां ब्रह्म-माया ही दांपत्य भाव में हैं। विभिन्न देव सृष्टि को स्वरूप देते हैं, रक्षा करते हैं। यहां सिनीवाली देवता विशेषत: प्रजनन क्षमता और सहज प्रसव की अधिष्ठात्री के रूप में प्रतिष्ठित है। संतति प्राप्ति में ये दोनों कर्म अति महत्त्वपूर्ण है। यहीं एक अन्य मूल तत्त्व का स्पष्टीकरण भी हो जाना चाहिए कि सृष्टि किसी भी योनि की हो, दांपत्य भाव केवल ब्रह्म और माया का ही होगा।
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। (गीता 9.18)
अर्थात् प्राप्त करने वाला परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ देखने वाला, बिना अपेक्षा के हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, अविनाशी कारण (बीज) भी मैं हूं (गीता 9.18)। कैसा आश्चर्य है?
सभी शास्त्र एक ही बात कहते हैं—ब्रह्म और माया ही ८४ लाख योनियों में भ्रमण करते हैं। माया ही किसी भी योनि तक पहुंचने का साधन बनती है। वह ब्रह्म को एक योनि से दूसरी योनि तक पहुंचाती है। वह मोक्ष की ओर धकेलने की शक्ति भी बनती है। माया का आश्रय कारण शरीर है। जब तक जीवन परा-अपरा के हाथों चलता रहता है, माया दर्शक बनी रहती है।
पंचमहाभूत मन, बुद्धि, अहंकार को अपरा प्रकृति कहा है। दूसरी ओर जीवरूप पराप्रकृति है। माया प्रकृति से भिन्न है। प्रकृति ही ब्रह्म और माया को आवृत राती है ताकि इनके स्वरूप को जाना न जा सके। प्रकृति से पार पाना मुक्ति का द्वार खोलता है। त्रिगुणमयी प्रकृति के कारण माया भी गुणयुक्त नजर आती है, किन्तु वह गुणातीत है। क्याेंकि माया तो ब्रह्म के साथ रहती है, कामना रूप में।
व्यक्ति संकल्प करके अपरा के बाहर जाने अथवा जीने का प्रयास करता है, प्राणों की क्रिया के माध्यम से। इसी से परा प्रकृति के हृदय में स्थित तीनों गुणों में भी स्पन्दन शुरू हो जाता है। हृदय में ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र की शक्तियों के साथ परम गुरु की भी स्थिति होती है। वही गुणातीत अवस्था का प्रेरक तत्त्व होता है। जीवात्मा अश्वत्थ के ऊपरी अमृत भाग की ओर अग्रसर होता है। यही माया के क्षेत्र में प्रवेश है। मुक्ति साक्षी क्षेत्र शरीर में भी प्राण गुणातीत होकर हृदय से ऊपर उठते हैं तो भ्रू-मध्य में द्वि-दल कमल रूप अथवा प्रकृति के आगे परात्पर तत्त्व का प्रवेश द्वार है। यहीं चारों ओर गहन अंधकार का समुद्र है। यही माया का बुद्बुद् रूप-अव्यय पुरुष है। यहां यजु: पुरुष होते हुए भी ऋत भाव में है। ऋक् केन्द्र, परिधि (वाक्) ही साम है। स्वयं की यह वाक् ही ऋत रूप ब्रह्म की प्रथम सत्यावाक् है। ऋत ही मानसिक सत्य है। संकल्प ऋत है, यथार्थ वाणी सत्य है। ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात...’ का भी अर्थ यही है कि ब्रह्मा ने तप करके (ज्ञानमय) ऋत और सत्य उत्पन्न किए। उसी से जल समुद्र उत्पन्न हुआ। तप प्राणों का होता है। मन की कामना का, रचना करने योग्य का पर्यालोचन करना है। ‘‘ब्रह्मा ने तप द्वारा इस सबको रचा।’’ तै.आ.। यजु: ही प्रथम सत्य रूप अव्यय बना। यही मायाधिष्ठान भूत अव्यय भावी सृष्टि का उपादान बनता है।
भ्रू-मध्य का तप विशेष होता है। क्योंकि यह कारण शरीर का क्षेत्र है। माया का तप के प्रभाव से चलन होता है। बुद्बुद् की परिधि तप से संकुचित होती जाती है। बुद्बुद् जल शरीर है। यह जल ही श्रद्धा कहलाता है जो कि माया का ही पर्याय है। यही बुद्बुद् माया रूप आवरण है, ब्रह्म का। तप के प्रभाव से छोटा होते-होते मातरिश्वा वायु के द्वारा ब्रह्म के बिन्दु भाव में समा जाता है। अर्द्धनारीश्वर बन जाते हैं। षोड़शकल जीवात्मा की सारी कलाएं लीन हो जाती हैं। परात्पर की अर्द्धकला नई सृष्टि की ओर पुन: उद्बुद् हो उठती है।
-क्रमश: gulabkothari@epatrika.com
Published on:
04 Oct 2025 10:25 am
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