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शरीर ही ब्रह्माण्ड – क्षुधा का दिव्य स्वरूप भी

आत्मा का भूमाभाव ही कामना का मूल है। इसी से वर्तमान अवस्था में गति भी आती है। जीव ब्रह्म का अंश भाव है। इसी को पूर्णता देने के लिए कामना या क्षुधा शक्ति प्रवृत्त होती है। हमारी सारी कामनाएं बाहर से पूरी होती हैं।

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फोटो: पत्रिका

या देवी सर्वभूतेष क्षुधा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। (देवी सूक्त)


सुर-लक्षणा है क्षुधा भी। कौन स्वीकार करेगा कि भूख-अभाव जैसे शब्द भी दिव्यता दिखा रहे हैं। क्षुधा ही कामना है जिसके बिना कर्म हो नहीं सकता। कामना पूर्ति ही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का सपना होता है। भोजन प्राप्त होते ही व्यक्ति शक्ति का अनुभव करता है। क्षुधा तन की, मन की, बुद्धि की एवं आत्मा की भिन्न-भिन्न होती है। आत्मा-अव्यय मन की तो एक ही कामना होती है- एकोऽहं बहुस्याम्। ईश्वरीय कामना तो निश्चित ही है कि दिव्य ही होगी। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म की कामना की ही अभिव्यक्ति है। विशेष बात यह है कि ईश्वर या प्रजापति ब्रह्म केवल कामना करता है, कर्म नहीं करता। यह कामना रस और बल, दो रूप होकर अक्षर के प्रभाव में आगे बढ़ती है। स्वयं महामाया ही बलरूप में सृष्टिकामना (सिसृक्षा) पैदा करती है। रस कामना मुमुक्षा (मुक्ति) भाव है।


आत्मा का भूमाभाव ही कामना का मूल है। इसी से वर्तमान अवस्था में गति भी आती है। जीव ब्रह्म का अंश भाव है। इसी को पूर्णता देने के लिए कामना या क्षुधा शक्ति प्रवृत्त होती है। हमारी सारी कामनाएं बाहर से पूरी होती हैं। व्यक्ति जीवनभर अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए भाग-दौड़ करता है। अन्य प्राणियों के जीवन का आधार भी कामना ही है। अन्तर केवल इतना ही है कि मनुष्य की कामना के साथ परिणाम जुड़ा होता है।


दाम्पत्य जीवन में पत्नी कामना बनकर प्रवेश करती है, पत्नी सृष्टि कामना के रूप में महामाया है—क्षुधा रूपेण संस्थिता। यह सृष्टि का अमृत भाव है। क्योंकि महामाया का ब्रह्म-हृदय में जागरण हो गया। निर्विशेष अब परात्पर बन गया। यहां केवल कामना ही है, क्रिया नहीं है। दोनों के हृदयों में भी कामना के स्पन्दन पहुंचे। हृदय में तीन अक्षर प्राण—ब्रह्मा-विष्णु-महेश (इन्द्र) तथा तीनों की शक्तियां—महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली स्थित हैं। हृदय के केन्द्र में ही ब्रह्म की प्रतिष्ठा है। यह सूक्ष्म शरीर का क्षेत्र है, प्राणों का संसार, देव या अधिदेव सृष्टि है। जीवात्मा भी सूक्ष्म सृष्टि का ही अंग होता है। यहीं पर प्रारब्ध, पितर प्राण जैसी संस्थाएं प्रतिष्ठित हैं।


इसके बाहर स्थूल सृष्टि है, अष्टधा अपरा प्रकृति है। पंचमहाभूत, मन-बुद्धि-अहंकार हैं। शरीर है। यह स्वयं स्थिर है। प्राणों पर इसकी गति निर्भर करती है। प्राण मन की कामना का अनुसरण करते हैं। चूंकि मन के नित्य निर्माण का आधार अन्न है, अत: अन्न कला मन को सुरक्षित रखती है। कामना की तीन विभक्तियां वाक् के स्वरूप का निर्धारण करती हैं। मन में उठने वाली सृष्टि की इच्छा (उक्थ) काम है। सृष्टि की इच्छा पुरुष मन में उठती है। वही ब्रह्म बीज का धारक है। वही अपनी सृष्टि को आगे बढ़ाना चाहता है। इस इच्छा का मूल, भावना है। भावना कर्म का कारण है, सूक्ष्म तथा दिव्य धरातल है। इससे प्राण में क्षोभ होता है। प्राण भी अक्षर पुरुष का धरातल है। प्राणों का क्षोभ ही तप है, यही श्रम रूप में कर्म और परिणाम तक जाता है।


पुरुष बुद्धि प्रधान जीवन जीता है। आत्मा सूर्य होने से उसका ब्रह्मरंध्र से सीधा सम्पर्क नित्य रहता है। अत: उसकी इच्छा आत्मिक-इच्छा की श्रेणी में आती है। ब्रह्म की इच्छापूर्ति के लिए कर्म है। इस कर्म का बन्धन नहीं होता है। यही कर्म यदि मन की इच्छा से किया जाता है, तो यह हृदय तक पहुंचता है। ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। जिन कर्मों के फल मिलेंगे, वो जीव की इच्छा के कर्म हैं। इनका आधार शुद्ध भोग है। तप में मूल प्रभाव तो भावना का ही रहता है। ब्रह्म, देव, पितर, पशु आदि में से कर्म किसके लिए किया जा रहा है और क्यों किया जा रहा है? आज यह कर्म धीरे-धीरे दुराचार का स्वरूप लेता जा रहा है। व्यक्ति कर्म तो करना चाहता है, किन्तु उसका फल नहीं चाहता। सन्तान को रोकने के लिए भी उसको अन्यथा (विपरीत या विरुद्ध) कर्म करने पड़ते हैं, जो सृष्टि की दिव्यता को आसुरी कर्म का रूप दे देते हैं। उसका फल कई गुणा नकारात्मक होता है।

भूख के कारण भी अनेक हो सकते हैं। मन को सुन्दरता (रूप) आकर्षित करती है—किसी को आंखों की, किसी को वाणी की और किसी को स्पर्श की। इस मायाबल से ही रस आवृत्त होता है। ये सारे भेद भावना में समाहित हो जाते हैं, तप के स्वरूप को प्रभावित करते हैं। मन का अन्न बदलता जाता है क्योंकि अशिति (अन्न) ही मन का निर्माण करती है—अन्न रूप में। जैसा खावे अन्न-वैसा होवे मन। इस दृष्टि से स्त्री-पुरुष के अन्न का भेद समझा जा सकता है। पुरुष अन्न में स्नेहन और माधुर्य अधिक होगा। दोनों ही शुक्र को पुष्ट करने वाले- आप् और सोम रूप- होते हैं। वहीं स्त्री अन्न में चटपटा-तीखा-राजसी स्वरूप उसके कामना-स्वरूप की ही व्याख्या करता है। उसका यात्रा मार्ग मन के भीतर छिपा रहता है। मन का केन्द्र ही हृदय है, हृदय में ईश्वर रहते हैं। स्त्री भक्ति मार्ग की अनुगामिनी होती है। राधा और मीरा भक्ति के प्रतीक माने जाते हैं।


पुरुष का मार्ग बुद्धि है, ज्ञान है, तप है। उष्णता का मार्ग है। उग्रता एवं आक्रामकता इस मार्ग की बड़ी बाधा है। मन की अल्पता से मिठास का अभाव दिखाई दे जाता है। भक्ति में प्रवेश कठिन जान पड़ता है। बुद्धि अहंकार की जननी है। पत्नी के प्राण उसके हृदय में रहने से यह कमी पूरी हो जाती है। पत्नी के मन की भावना पति के कर्म को प्रभावित करती है। इसके प्रभाव में पुरुष के कर्म (इच्छा) या तो दैहिक होंगे अथवा बौद्धिक। गीता का वैराग्य बुद्धियोग जीवन को नित्य प्रकाशित रखने वाला है।


स्त्री-पुुरुष दोनों अद्र्धनारीश्वर हैं। पुरुष भीतर स्त्री भी है, स्त्री भीतर पुरुष भी है। पुरुष बाहर अग्नि है- ऊपर उठता है। भीतर सोम है- अधोगामी है। दोनों में विपरीत दिशा के कारण यज्ञ की स्थिति नहीं बनती। कर्ता भाव का अभाव है। स्त्री का बाहरी सोम भीतर की अग्नि पर नित्य वर्षण करता है, जैसे सूर्य पर परमेष्ठी सोम बरसता है। अग्नि को सदा प्रज्वलित रखता है। सर्वहुत यज्ञ जैसी स्थिति है। बार-बार चखते रहने का स्वभाव सोम की पूर्ति का प्रतीक है। स्त्री पुरुष की पूरक है। शक्ति रूपा है। पुत्रेषणा में सहयोग करती है। वित्तेषणा और लोकेषणा पुरुष के कर्म पर आधारित है जिसका लाभ पत्नी को मिलता है। मूल में 'शक्ति' रूप सूक्ष्म स्तर का द्योतक है। स्त्री की भूमिका अधिकांशत: सूक्ष्म स्तर की है। चाहे पति की जीवात्मा हो, अथवा सन्तान की, दोनों का ही निर्माण और विध्वंस स्त्री के हाथ में रहता है। स्त्री को जीव के साथ, जीव की भाषा में आदान-प्रदान करना आता है। पुरुष अनभिज्ञ रहता है। पुरुष के हृदय में बैठकर उसकी कामना बनती है, शक्ति बनती है; वहीं सन्तान के जीवात्मा को संस्कारित करके मानव योनि में ढालती है।


क्षुधापूर्ति उचित अन्न से ही होती है। अन्न की आहुति से ही नया निर्माण होता है। यदि पुरुष को विकास पाना है तो भीतर की स्त्री को पुरुष के समकक्ष खड़ा करे। अपने जीवन में स्नेह-माधुर्य-श्रद्धा-वात्सल्य-करुणा जैसे स्त्रैण-भाव विकसित करे। पिता होने के साथ ही वह मां भी तो हो सकता है। अपनी बुद्धि के अहंकार को स्त्रैण भावों से सन्तुलित करता हुआ सौम्यता ग्रहण करे। इसी प्रकार स्त्री को भी भीतर पौरुष का विकास करने की आवश्यकता है। शक्तिकरण इसी को कहा जाता है।

क्रमश: gulabkothari@epatrika.com