जयपुर। क्या आपने सोचा है, आखिरी बार आप कब सच्चे अर्थों में शांति महसूस कर रहे थे? सिर्फ मनोरंजन या खुशी नहीं, बल्कि भीतर से खुद को मजबूत और संतुलित पाया हो? एक नए अध्ययन के अनुसार, प्रकृति के बीच समय बिताना उस गहरी शांति को पाने का बड़ा जरिया हो सकता है। मनोविज्ञान में इसे यूडेमॉनिक वेल-बीइंग कहते हैं। इसमें जीवन का उद्देश्य, आत्म-स्वीकृति, व्यक्तिगत विकास और रिश्तों का महत्व शामिल है। यानी यह सिर्फ क्षणिक खुशी नहीं, बल्कि गहराई तक असर डालने वाली संतुलित अवस्था है।
प्रकृति और आत्मिक विकास
फिनलैंड के तुर्कु शहर में किए गए इस शोध में सबसे पहले 158 लोगों से सवाल पूछे गए कि वे प्रकृति में कितना समय बिताते हैं और उनके जीवन में उद्देश्य, आत्म-स्वीकृति, रिश्ते और आत्मनिर्भरता का स्तर कैसा है। इसके बाद 20 लोगों को रचनात्मक लेखन कार्यशाला में बुलाया गया, जहाँ उन्होंने बताया कि प्रकृति उनके जीवन और सोच को कैसे प्रभावित करती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रकृति लोगों को आत्म-स्वीकृति, जीवन का उद्देश्य और रिश्तों में मजबूती देने में अहम भूमिका निभाती है। शोधकर्ता जोहा यारेकारी का कहना है, “हेडोनिज़्म (सिर्फ तात्कालिक सुख) के विपरीत यूडेमोनिया लंबे और गहरे कल्याण से जुड़ा है, और प्रकृति इसमें मदद करती है।”
अध्ययन में 15–24 वर्ष के युवाओं और 60+ आयु वर्ग के लोगों को शामिल किया गया। दोनों ही समूहों ने यह महसूस किया कि प्रकृति उन्हें बिना जज किए अपनाती है। पेड़ उन्हें अंक नहीं देते, नदियाँ उन्हें परखती नहीं—यह भाव उनके भीतर ईमानदारी और आत्म-स्वीकृति को बढ़ाता है।
शोध में प्रतिभागियों ने दो तरह के जुड़ाव बताए—
इस तरह प्रकृति ने उन्हें जीवन में असली मायने और संतुलन खोजने में मदद की।
बुजुर्गों ने प्रकृति में समय बिताते हुए बच्चों के साथ के पल और शांत सैर का ज़िक्र किया, जो उन्हें आध्यात्मिक शांति भी देता है। युवाओं ने बताया कि वे प्रकृति में अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस नहीं करते, और दोस्तों संग रहते हुए भी बातचीत का दबाव नहीं होता। दोनों ही स्थितियों ने उन्हें “खुद के असली स्वरूप” के करीब पहुँचाया।
हालाँकि, कई युवाओं ने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षति को लेकर चिंता जताई। कई बार यह चिंता और अपराधबोध उनके आत्म-स्वीकृति में बाधा बनी।
यह शोध बताता है कि प्रकृति सिर्फ तनाव घटाने या मूड सुधारने का साधन नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की पहचान और जीवन दृष्टि को गहराई से प्रभावित करती है। शोधकर्ता यारेकारी के अनुसार, “प्रकृति से जुड़ाव हमारी पहचान के स्तर पर असर डालता है और यह समय के साथ और स्पष्ट होता जाता है।”
शोधकर्ता यह भी कहते हैं कि शहरों की योजना बनाते समय पार्कों और हरियाली को सिर्फ फिटनेस या दौड़ने की जगह के रूप में न देखा जाए। ऐसे स्थान चाहिए जहाँ लोग बैठ सकें, ठहर सकें और सोच सकें—यानी आत्मिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा मिले।
इसका मतलब यह नहीं कि बड़े-बड़े कार्यक्रम जरूरी हैं। पास के किसी पार्क या बगीचे में नियमित समय बिताना, बच्चों और बुजुर्गों के साथ धीमी सैर करना, मोबाइल दूर रखना—ये छोटी-छोटी आदतें भी लंबे समय तक गहरा असर डाल सकती हैं। यही यूडेमॉनिक वेल-बीइंग का मूल है—और प्रकृति हमें यह सहज रूप से दे सकती है। यह पूरा अध्ययन पीपल एंड नेचर नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
Published on:
30 Aug 2025 05:49 pm