
नशा और जंग। दोनों ने अनेक जिंदगियां बर्बाद की हैं, असंख्य परिवार उजाड़े हैं। लेकिन इनमें से कई कहानियां उजड़ कर बसने की भी होती हैं। बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति राय की कहानी भी इनमें से एक है। यह कहानी अब वह दुनिया के सामने लेकर आई हैं। ‘मदर मैरी कम्स टु मी’ नाम से लिखी किताब की शक्ल में।
28 अगस्त को आई इस किताब में उन्होंने उन कठिन हालात का जिक्र किया जिनसे गुजरते हुए वह एक इंसान और लेखक के रूप में गढ़ी गईं। साथ ही, इसमें मां की भूमिका और संघर्ष को भी याद किया है। उन्होंने मां के साथ और उनके बाद की जिंदगी की खट्टी-मीठी यादों को सदा के लिए कागज पर उतार दिया है। साथ ही, यह भी बताया है कि वह आज जो हैं, उसके होने में उनका कितना और कैसा रोल रहा।
उन्होंने उस दोस्त को भी याद किया जो उनके जीवन के रेगिस्तान में बारिश की बूंदों की तरह था। उसने उन्हें बंसी बना कर दी और मछली पकड़ना सिखाया। वह जो मछली पकड़तीं, उसे वह लड़का पकाता और फिर दोनों मिल कर खाया करते थे। उसकी याद अरुंधति के दिल में ऐसी बसी रही कि उससे प्रेरित किरदार अम्मू का प्रेमी वेलुथा अरुंधति के बुकर विजेता उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ में भी आया। अब उनकी नई किताब के हवाले से उनकी शुरुआती जिंदगी के झंझावातों के बारे में जानते हैं।
अरुंधति के पिता असम के एक चाय बागान में असिस्टेंट मैनेजर हुआ करते थे। मां टीचर बनना चाहती थीं। लेकिन पिता शराब में डूब गए और मां का टीचर बनने का सपना दुःस्वप्न में बदल गया। 1962 में भारत-चीन की लड़ाई छिड़ी तो जीवन का संघर्ष और गहरा गया। परिवार को घर छोड़ना पड़ा। असम छोड़ कर कोलकाता को नया ठिकाना बनाया। मां ने असम नहीं लौटने का तय कर लिया था। तो कोलकाता के बाद अगला ठिकाना बना तमिलनाडु का छोटा सा हिल स्टेशन ऊटी। तब अरुंधति महज दो साल 11 महीने की मासूम बच्ची थीं। उनके बड़े भाई ललित कुमार क्रिस्टोफर रॉय (एलकेसी) साढ़े चार साल के थे। तब से 20 की उम्र पार कर जाने के बाद भी उन्होंने अपने पिता को नहीं देखा था।
पिता का साथ नहीं होना एक मात्र समस्या नहीं थी। यह तो महज एक समस्या थी। ऊटी में नाना का एक हॉलिडे कॉटेज था। नाना ब्रिटिश सरकार की नौकरी से दिल्ली में रिटायर हुए थे। उन्होंने नानी और उनके बच्चों से सालों पहले नाता तोड़ रखा था। जिस साल अरुंधति का जन्म हुआ, उसी साल नाना दुनिया को अलविदा कह गए थे। अब उनकी बेटी को पिता के कॉटेज में शायद ताला तोड़ कर घुसना पड़ा था। चाबी किसी किरायेदार के पास थी।
अरुंधति की मां अपने दो बच्चों के साथ कॉटेज के आधे हिस्से में रहने लगीं। प्लाइवुड की दीवार खड़ी कर कॉटेज को दो हिस्सों में बांटा गया। दूसरे में किरायेदार रहती थीं। वह किराया देती थीं या नहीं, पता नहीं। किरायेदार एक बुजुर्ग अंग्रेज औरत थीं। नाम था मिसेस पैटमोर। रात में वह जोर से खर्राटे लेती थीं।
कॉटेज की हालत खराब थी। अरुंधति, उनकी मां और भाई लकड़ी के बड़े-बड़े संदूकों के बीच शरणार्थी की तरह रहा करते थे। उन संदूकों में नाना के बेशकीमती कपड़े, रेशमी टाई, कमीजें, थ्री-पीस सूट भरे थे। बिस्किट का एक पुराना कनस्तर भी था, जो कफलिंक्स से भरा था। नाना की दास्तान भी अलग ही थी। अपने बच्चों को पीटना, घर से बाहर निकाल देना, पत्नी से मारपीट करना (एक बार तो पत्नी का सिर ही फोड़ दिया था)...। अंत में उनसे छुटकारा पाने के लिए नानी ने दूसरी शादी कर ली थी।
खैर, ऊटी में एक अच्छी बात यह हुई कि आने के कुछ ही दिन बाद अरुंधति की मां मिसेस मैरी को ब्रीक्स स्कूल में पढ़ाने का काम मिल गया। लेकिन, संघर्ष खत्म होने का वक्त अभी नहीं आया था। वह और बढ़ने ही वाला था। कुछ महीने बाद नानी और उनका बेटा जी आइजक (मां के बड़े भाई) केरल से आ धमके और कॉटेज खाली करने के लिए कहने लगे। उन्होंने त्रावणकोर ईसाई उत्तराधिकार कानून का हवाला देकर कहा कि पिता की जायदाद पर बेटियों का कोई हक नहीं होता। इसलिए घर को तत्काल खाली कर दें।
उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि इनका कोई दूसरा ठिकाना नहीं है। अरुंधति की मां दोनों बच्चों का हाथ थामे बदहवास शहर में भटक रही थीं। किसी वकील की तलाश में। रात का वक्त था। सड़कों पर अंधेरा पसरा था। पर उन्हें उम्मीद की किरण दिखाई दे रही थी, क्योंकि एक वकील मिल गया था। और वकील ने बताया कि त्रावणकोर एक्ट केरल में लागू है, तमिलनाडु में नहीं। फिर क्या था, तीनों विजयी मुद्रा में कॉटेज लौट गए थे। इसके बाद तो उन्होंने कॉटेज में अपने लिए थोड़ी और जगह बना ली। मां ने नाना के सूट और कफलिंक्स पास के टैक्सी स्टैंड पर ड्राइवर्स में बंटवा दिए।
कॉटेज में तो थोड़ी ज्यादा जगह मिल गई थी, पर जिंदगी की तकलीफ कम नहीं हो रही थी। ऊटी की नमी और ठंड की वजह से मां का दमा बढ़ गया था। वह रजाई ओढ़े, बिस्तर पर पड़ी रहती थीं। बच्चों को कभी-कभी लगता था कि वो अब नहीं बचेंगी। पर मां को पसंद नहीं था कि बच्चे उनके पास खड़े होकर उन्हें देखते रहें। वह उन्हें कमरे से बाहर जाने का आदेश दे देती थीं। बीमारी और दवा के असर ने उन्हें बहुत चिड़चिड़ा बना दिया था। वह अक्सर भड़क जातीं और बच्चों को मार बैठती थीं। क्रिस्टोफर के साथ जब भी ऐसा होता तो वह घर से चले जाते और अंधेरा होने पर ही वापस आते थे। वह कभी रोते नहीं थे। जब भी उदास या दुखी होते तो डाइनिंग टेबल पर सिर झुका कर सोने का नाटक करते थे। जब वह खुश होते तो हवा में मुक्का उछालते हुए बहन के चारों ओर घूम-घूम कर नाचा करते थे। हालांकि, ऐसे मौके बहुत कम आते थे।
मां का दमा जब बहुत बढ़ जाता था तब वह बच्चों को बास्केट और सामान की लिस्ट देकर शहर भेजा करती थीं। ऊटी तब छोटा, सुरक्षित शहर हुआ करता था। सड़कों पर गाड़ियां भी कम ही हुआ करती थीं। पुलिसवाले उन्हें जानते थे। दुकानदार भी हमेशा अच्छा बर्ताव करते थे। कभी-कभी सामान उधार भी दे दिया करते थे। कुरुसम्मल नाम की एक महिला थीं, जो उनसे सबसे ज्यादा हमदर्दी रखती थीं। जब कुछ हफ्तों तक मां बिस्तर से उठ ही नहीं पाती थीं, तब वह घर आकर बच्चों की पूरी देखभाल किया करती थीं। प्यार, भरोसा और गले लगने का अहसास अरुंधति ने यह कुरुसम्मल से ही समझा। उनके आने से थोड़ी खुशी लौटी थी, लेकिन वह पल भर ही ठहर पाई। पैसे खत्म हो गए थे। मां की हालत और बिगड़ गई थी। अरुंधति और उनके भाई को सही खाना तक नहीं मिल पा रहा था। वे कुपोषण और टीबी के शिकार हो गए। अंत में मां ने भी हार मान ली और वह बच्चों को लेकर केरल, अपने गांव अयमनेम लौट गईं।
केरल में जिस घर में रहने के लिए पहुंचे, वह नानी की बड़ी बहन मिस कुरियन का था। वह पढ़ी-लिखी, समृद्ध, आधुनिक, लेकिन खूसट महिला थीं। उन्होंने घर में रहने का ठिकाना तो दिया, लेकिन मन में कभी जगह नहीं दी। उल्टा, हर वक्त इसका अहसास भी करवाया। वह दूसरे बच्चों पर प्यार लुटातीं, लेकिन वहीं अरुंधति और उनके भाई को हिकारत भरी नजरों से देखतीं। वहां हर पल अपमान झेलना पड़ता था।
इसी मुश्किल भरी जिंदगी में एक दोस्त भी बना। एक लड़का जो अयमनेम में रहता था और कोट्टायम में काम करता था। उसने अरुंधति को बांस की बंसी बना कर दी और मछली पकड़ना सिखाया। वह जो मछली पकड़तीं, लड़का उसे पकाता और फिर दोनों मिल कर मस्ती से खाते। आगे चल कर ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ में अम्मू के प्रेमी वेलुथा का किरदार उसी लड़के से प्रेरित था।
Published on:
01 Sept 2025 05:00 am

