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अमरीका का बहिष्कार: बदलती वैश्विक राजनीति का संकेत

नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन में 'वसुधैव कुटुम्बकम' के विचार को जब भारत ने प्रस्तुत किया था, वही अब दक्षिण अफ्रीका के सम्मेलन की आत्मा बन गया है।

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विनय कौड़ा,अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार- जी -20 की मेजबानी कर रहे दक्षिण अफ्रीका की राजधानी जोहान्सबर्ग की हवा इन दिनों सियासी रूप से गरम है। 22-23 नवंबर को यहां विश्व के 19 प्रमुख देशों के नेता एकत्र होंगे- वे राष्ट्र जो वैश्विक अर्थव्यवस्था और नीतियों की दिशा तय करते हैं। इस बार अमरीका, जो कभी स्वयं को विश्व व्यवस्था का निर्माता और नियंता कहता था, सम्मेलन में भाग नहीं लेगा। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अनुपस्थिति का कारण दक्षिण अफ्रीका में श्वेत नागरिकों के मानवाधिकारों के कथित घोर उल्लंघन को बताया है। पर प्रश्न यह है कि क्या यह वास्तव में मानवाधिकारों की चिंता है, या फिर राजनीतिक स्वार्थ का वही प्रपंच, जिसमें ट्रंप निपुण रहे हैं?


ट्रंप ने दक्षिण अफ्रीका पर आरोप लगाया है कि वहां श्वेत अफ्रीकन समुदाय के साथ अत्याचार हो रहे हैं, उनकी भूमि छीनी जा रही है और वे हिंसा का शिकार हैं। परंतु दक्षिण अफ्रीका की सरकार, स्थानीय पत्रकारों, समाजशास्त्रियों और स्वयं अफ्रीकन बुद्धिजीवियों ने ट्रंप के इन दावों को सरासर झूठ बताया है। उनका कहना है कि अपराध और हिंसा वहां सबको समान रूप से प्रभावित करते हैं, किसी एक जातीय समुदाय को नहीं, लेकिन ट्रंप अपने फैसले पर अडिग हैं। इससे यह आभास होता है कि अमरीका का यह फैसला तथ्यों की कसौटी पर नहीं, बल्कि भावनाओं और राजनीतिक ध्रुवीकरण पर आधारित है। अमरीका का यह पुराना पैंतरा रहा है कि जब कोई स्वतंत्र देश उसकी नीतियों से असहमत होता है, तो वह नैतिकता का झंडा उठाकर उसे 'मानवाधिकार' के नाम पर कठघरे में खड़ा कर देता है। यह उसके दोहरे मानदंड का स्पष्ट उदाहरण है, जहां एक ओर लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात होती है और दूसरी ओर आर्थिक और रणनीतिक दबाव का प्रयोग। इसी रणनीति का उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में देखने को मिला है। जब राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा की ओर से गाजा में इजरायल की कार्रवाइयों की मुखर आलोचना ने वाशिंगटन के साथ उनके संबंधों को अधिक तनावपूर्ण बना दिया।


दक्षिण अफ्रीका आज उस महाद्वीप का प्रतीक है, जिसने सदियों की दासता और भेदभाव के बाद बराबरी की दिशा में कदम बढ़ाया है। श्वेत सरकार की नस्लभेद व्यवस्था को खत्म कर उसने संविधान और समानता की नींव पर नया समाज बनाया। आज जब वह जी-20 के मंच पर 'समानता, एकजुटता और स्थिरता' की थीम लेकर आगे बढ़ रहा है, तब अमरीका इस संवाद से दूरी बना रहा है। यह उस असहजता का परिणाम है, जो अमरीका की बदलती विश्व व्यवस्था में महसूस हो रही है। वह व्यवस्था जिसमें अब शक्ति का केंद्र पश्चिम में नहीं, बल्कि बहुध्रुवीय रूप में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका तक फैल रहा है। भारत के लिए यह घटना केवल कूटनीति प्रसंग नहीं, बल्कि नैतिक दृष्टि का भी प्रतीक है। भारत ने हमेशा वैश्विक दक्षिण की आवाज को मजबूती से उठाने का काम किया है तथा अब यह भूमिका और स्पष्ट हो रही है।

नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन में 'वसुधैव कुटुम्बकम' के विचार को जब भारत ने प्रस्तुत किया था, वही अब दक्षिण अफ्रीका के सम्मेलन की आत्मा बन गया है। यही वह क्षण है जब भारत को केवल कूटनीतिक दायित्व निभाने वाला देश नहीं, बल्कि विश्व स्तर पर नैतिक नेतृत्व और साझेदारी की मिसाल पेश करने वाला राष्ट्र बनकर उभरना होगा। आज अमरीका में एक राजनीतिक सोच पनप रही है जो दुनिया को श्वेत नजरिए से देखती है और हर स्वतंत्र आवाज को अपने हित के अनुसार ढालना चाहती है।


इस परिदृश्य में भारत के सामने एक शानदार अवसर है। भारत, दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर वैश्विक दक्षिण की नई आवाज बन सकता है। महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला की विरासत दोनों देशों में न्याय, अहिंसा और समानता की साझा परंपरा है। अमरीका ने जिस मंच के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई थी, ट्रंप उसी मंच से दूरी रखकर यही संकेत दे रहे हैं कि अमरीका वैश्विक संवाद से पीछे हटना चाहता है। अमरीका का यह बहिष्कार एक प्रतीकात्मक संदेश भी है कि वैश्विक शक्ति का केंद्र अब धीरे-धीरे बदल रहा है। जब कोई महाशक्ति अपने ही बनाए मंच से हट जाती है, तो यह उसकी ताकत नहीं, उसके डर की अभिव्यक्ति होती है। जी-20 से अमरीका का बहिष्कार भारत के लिए केवल चुनौती नहीं, बल्कि वैश्विक न्याय, समानता और सहयोग की नई धुरी बनाने का अवसर है।