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आधुनिक दौर में पूंजीवाद का उभरता मानवतावादी स्वरूप

यह सिद्धांत हृदय परिवर्तन और स्वैच्छिक त्याग पर आधारित है।

जयपुर

Opinion Desk

Nov 18, 2025

डॉ. ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री - भारतीय संस्कृति में दान की परंपरा का एक विशेष महत्त्व रहा है। इसे धर्म और सामाजिक जिम्मेदारी से जोड़कर देखा जाता रहा है। भारत में इसलिए संभवत: धार्मिक कार्यों में दान-दक्षिणा की परंपरा को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इस परंपरा का उद्देश्य न केवल जरूरतमंदों की मदद करना, बल्कि समाज में संतुलन और मानवता को बनाए रखना रहा है। देश में असमानता और निर्धनता की स्थिति को देखकर ही संभवत: महात्मा गांधी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया था, जिसके अनुसार अमीर लोग अपनी संपत्ति के मालिक नहीं, बल्कि ट्रस्टी या संरक्षक होते हैं। वे अपनी संपत्ति का उपयोग केवल अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए करते हैं और शेष संपत्ति समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर देते हैं।


यह सिद्धांत हृदय परिवर्तन और स्वैच्छिक त्याग पर आधारित है। हाल में अमरीकी उद्योगपति वॉरेन बफे ने अपनी 150 अरब डॉलर की संपत्ति अपनी मृत्यु के बाद अपने बच्चों द्वारा संचालित एक परोपकारी ट्रस्ट को दान करने की बात की। इस ट्रस्ट के माध्यम से उनके बच्चे इस धन को परोपकारी कार्यों के लिए इस्तेमाल करेंगे, जिसमें वे अपनी समझ और सर्वसम्मति से निर्णय लेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक अच्छी परंपरा है, लेकिन क्या इसे गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत के रूप में देखा जा सकता है या इसे पूंजीवाद का मानवतावादी चेहरे के रूप में देखा जाना चाहिए? पर सवाल यह है कि क्या कल्याणकारी पूंजीवाद संभव है? या फिर जीवनभर शोषण और दमन के बाद अंतिम समय में पूंजीपतियों की सोच में बदलाव आना स्वाभाविक है? समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो वर्तमान दौर टेक्नो-कैपिटलिज्म का दौर है, जहां तकनीकी नवाचार और पूंजी धन, विकास और शक्ति के प्राथमिक चालक होते हैं। इन सबके कारण गरीब और अमीर के बीच की खाई इतनी बढ़ती जा रही कि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं।


इस नव-पूंजीवाद के दौर में अब शोषण और दमन के स्थान पर पूंजीवाद का एक कल्याणकारी स्वरूप उभरकर आ रहा है, जो दो तरीकों से काम करता है पहला कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिल्टी(सीएसआर) के रूप में और दूसरा दान या डोनेशन के रूप में। क्या पूंजीवाद के भीतर का संकट उन्हें कल्याणकारी कार्यों के लिए बाध्य कर रहा है। या फिर क्या बाजार कल्याणकारी गतिविधियों के लिए अब राज्य की जगह ले रहा है या ले सकता है? ऐसा नहीं है कि यह कोई पहली घटना है इस तरह से संपत्ति दान के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं पर सवाल यह उठता है कि 90 की उम्र या बढ़ती उम्र में ही कल्याणकारी गतिविधियों में शामिल होने का विचार क्यों मन में आता है?


कुछ ऐसे पूंजीपति हैं, जो पूंजीवाद के घृणित चेहरे के स्थान पर पूंजीवाद के कल्याणकारी व मानवतावादी चेहरे को सामने लाए हैं जैसे भारत में रतन टाटा, अजीम प्रेम जी, जिन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में समाज के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। दूसरी ओर पूंजीवाद का अमानवीय और शोषणमूलक स्वरूप भी है, जहां कार्य के अधिक घंटे, कार्यस्थल का असुरक्षित वातावरण, जॉब में असुरक्षा की भावना, छंटनी का डर, कम वेतन इत्यादि पक्ष मौजूद हैं। लगभग इसी तरह की चर्चा समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने प्रोटोस्टेंट एथिक्स एंड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म में और कार्ल माक्र्स ने दास कैपिटल में की थी, जहां वेबर ने पूंजीवाद के कल्याणकारी स्वरूप को प्रस्तुत किया और माक्र्स ने शोषण का चेहरा दिखाया। यह भी सच है कि उस समय टेक्नोलॉजी इतनी प्रभावी नहीं थी जितनी आज है और इस टेक्नो-कैपिटलिज्म में अगर पूंजीपति को बहुत ज्यादा लाभ हो रहा है तो उन्हें लग रहा है कि जनता का एक भाग हमारे प्रति कहीं दुराग्रह विकसित न कर ले, जिससे विरोध की संभावनाएं न बढ़ जाए इसलिए वे कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं। दरअसल बाजार का एक ही नियम होता है कि बाजार का कोई नियम नहीं होता उसका उद्देश्य तो केवल और केवल लाभ कमाना होता है संभवत: इसलिए आज हमारा समाज अनेक जोखिमों और चुनौतियों से घिरा है।संभवत: गांधीजी ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की इन भावी चुनौतियों को भांपते हुए ही ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का सुझाव दिया हो। उनका मानना था कि यदि धनी व्यक्ति अपनी जरूरत से ज्यादा संपत्ति का उपयोग समुदाय के हित में करता है तो इससे समाज में समानता लाई जा सकती है और अमीर-गरीब के बीच की खाई दूर कर न्यायपूर्ण समाज की स्थापना का स्वप्न सच हो सकता है।