
डॉ. अजीत रानाडे, वरिष्ठ अर्थशास्त्री (द बिलियन प्रेस)- दुनिया के सबसे सशक्त पारदर्शिता कानूनों में से एक भारत का सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ था। इस कानून का मूल सिद्धांत यह है कि यदि कोई सूचना किसी सांसद या विधायक से नहीं रोकी जा सकती तो वही सूचना किसी भी भारतीय नागरिक से भी नहीं रोकी जा सकती। इसने नागरिकों को शासन में साझेदार बनाया और शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों को बदल दिया। पहली बार नागरिकों को यह वैधानिक अधिकार मिला कि वे सरकार से जवाब मांग सकें। वर्ग, जाति या क्षेत्रीय सीमाओं से परे इसने हर नागरिक को सरकारी संस्थाओं को जवाबदेह ठहराने की ताकत दी। यह कानून नागरिकों के दो दशकों लंबे जमीनी आंदोलन का परिणाम था, जिसकी बुनियाद सोच थी- ‘हमारा पैसा, हमारा हिसाब।’
बीते बीस वर्षों में इस कानून ने भ्रष्टाचार के कई मामलों को उजागर किया, कल्याणकारी योजनाओं के लाभ वितरण में पारदर्शिता आई, चुनावी चंदे, सार्वजनिक खरीद, पेंशन, राशन व्यवस्था और अधोसंरचना खर्च की जन निगरानी को संभव बनाया। इसने गांवों और कस्बों तक के लोगों में स्थानीय प्रशासन की अपारदर्शिता को चुनौती देने का साहस पैदा किया। आम आदमी के जीवन को प्रभावित करने वाली अनेकों सरकारी सेवाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी। लेकिन, इस शक्ति की भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है। अब तक सौ से अधिक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या केवल इसलिए कर दी गई, क्योंकि उनसे मांगी गई सूचनाओं से कुछ लोगों के स्वार्थों को चोट पहुंचती थी। आज यही लोकतांत्रिक उपकरण सबसे गंभीर खतरे में है। यह आशंका बलवती है कि ‘जानने का अधिकार’ अब सत्ता के हाथों ‘छिपाने का अधिकार’ बन रहा है। यह खतरा 2023 के डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन अधिनियम से पैदा हुआ है। इस अधिनियम की धारा 44(1)(b) ने आरटीआई कानून की धारा 8(1)(जे) में संशोधन किया है। पहले किसी निजी सूचना के व्यापक जनहित में आवश्यक समझे जाने पर उसका खुलासा किया जा सकता था। यही प्रावधान आरटीआई की आत्मा था, क्योंकि यह लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की नींव था। लेकिन इस अधिनियम ने यह जनहित अपवाद हटा दिया है। अब निजता लगभग एक अटल ढाल बन गई है, जब तक सरकार स्वयं जानकारी सार्वजनिक करने का निर्णय न ले।
नतीजतन, जहां पहले सूचनाओं को सार्वजनिक मानकर अपवाद सीमित थे, अब सूचनाओं को गोपनीय मानकर खुलासा अपवाद बन गया है। इस कानून ने ‘व्यक्ति’ की परिभाषा में कंपनियों, संगठनों और यहां तक कि सरकार को भी शामिल कर लिया है। इससे सरकारी और निजी कंपनियों के अनुबंधों तक व्यक्तिगत डेटा को छिपाया जा सकता है। यह केवल कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि आरटीआई की आत्मा को कमजोर करने वाला है। शक्ति अब नागरिक से हटकर राज्य के पास चली गई है। आरटीआई को कमजोर करने की पहली दरार गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम मुख्य सूचना आयुक्त (2012) के मामले से आई। मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी सरकारी कर्मचारी के अनुशासनात्मक कार्यवाही या सेवा अभिलेख से जुड़ी जानकारी 'व्यक्तिगत सूचना' है और इसलिए आरटीआई की धारा 8(1)(जे) के तहत रोकी जा सकती है। अदालत ने इसे नियोक्ता और कर्मचारी के बीच का विषय माना। इसके बाद किसी भी मामले में ‘व्यक्तिगत’ हर सूचना देने से इंकार किया जाने लगा।
स्थिति 2017 के पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले के बाद और जटिल हो गई, जिसमें निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया गया। यह स्वागतयोग्य कदम था, लेकिन उसके बाद कई मामलों में निजता के नाम पर पारदर्शिता को दबा दिया गया। इधर, सूचना आयोगों की संस्थागत संरचना भी चिंताजनक स्थिति में है। देश के 29 केंद्रीय और राज्य सूचना आयोगों में चार लाख से अधिक अपीलें पिछले वर्ष से लंबित हैं। ये आयोग निष्क्रिय हैं, पद खाली हैं और सुनवाई में वर्षों की देरी हो रही है। ऐसे में आरटीआई की प्रभावशीलता स्वतः घट गई है। इसका परिणाम है- अधिकारों का इनकार, देर से न्याय और नागरिकों में बढ़ती निराशा। हमें यह याद रखना होगा कि आरटीआई संसद से नहीं, बल्कि गांव की चौपालों, सड़कों पर आंदोलनों और नागरिक एकजुटता से जन्मा था। उसे बचाने के लिए वही नागरिक चेतना और सामूहिक सजगता आज फिर आवश्यक है। अब जो कदम आवश्यक हैं, उनमें पहला- जनहित अपवाद को पुनः स्थापित किया जाए ताकि निजता और पारदर्शिता के बीच संतुलन बना रहे। निजता महत्वपूर्ण है, लेकिन भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग और सार्वजनिक धन की जवाबदेही उससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। दूसरा- यह सिद्धांत पुनः लागू किया जाए कि जो सूचना संसद से नहीं रोकी जा सकती, वह किसी नागरिक से भी नहीं रोकी जा सकती। तीसरा- सभी रिक्त पद तुरंत भरे जाएं। चौथा- सूचनाओं का अनिवार्य और स्वप्रेरित प्रचार किया जाए, ताकि आरटीआई आवेदनों का बोझ घटे और गोपनीयता का बहाना समाप्त हो। पांचवां- आरटीआई उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए और 2014 में पारित व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम को लागू किया जाए।
आरटीआई की उपलब्धियों और शक्तियों को कमजोर नहीं आंका जा सकता। यह केवल एक प्रशासनिक उपकरण नहीं, बल्कि नागरिकता की आत्मा है। यह हमें याद दिलाता है कि राज्य जनता का है, न कि जनता राज्य का। यदि हम सच में मानते हैं कि नागरिक ही शासन के अंतिम मालिक हैं तो सूचना के अधिकार की रक्षा दृढ़ता, साहस और सामूहिकता से करनी होगी।
Published on:
14 Nov 2025 03:08 pm

