
फोटो: पत्रिका
स्वयंभू लोक आग्नेय प्राणों का लोक है। स्वयंभू को सृष्टि करने के लिए युगल चाहिए। सृष्टि कामना के तपन से जो स्वेद पैदा हुआ, उससे आप: तत्त्व पैदा हुआ। एक ही प्राण अब प्राण-आप दो भागों में बंट गया। जो भाग पानी बना वह योषा कहलाया। स्त्री बना। प्राण भाग वृषा रूप पुरुष कहलाया। दोनों के मिथुन भाव से विराट् पैदा हुआ। वेदत्रयी में ऋक्-महदुक्थ है, साम महाव्रत है, यजु: पुरुष है, गतिमान तत्त्व है। स्वेदन-अश्रुधारा आदि पानी रूप अग्नि से ही उत्पन्न होते हैं। विशुद्ध अग्नि सत्याग्नि है, यज्ञाग्नि यौगिक (मिश्रित) अग्नि है। एक फिजिक्स है, दूसरी केमिस्ट्री है। यज्ञाग्नि चित्याग्नि है, सत्याग्नि चितेनिधेय है। यजुराग्नि वेदाग्नि ही सत्याग्नि है। इसकी प्रथम विकास भूमि स्वयंभू, द्वितीय विकास भूमि सूर्य तथा तृतीय विकास भूमि भूपिण्ड है। इन्हीं को ब्रह्माग्नि, देवाग्नि, भूताग्नि कहा जाता है। इनका ही दूसरा नाम प्राणाग्नि, वागाग्नि, अन्नादाग्नि है। ब्रह्माग्नि से- विधरण, प्रतिष्ठा होती है। देवाग्नि से रूप और विकास होता है, भूताग्नि से पाक और विलयन धर्म की पूर्ति होती है। चौथा अग्नि यज्ञाग्नि रूप वैश्वानर है। यह ताप और दाहधर्मा है।
पानी उत्पन्न करना अग्नि का स्वाभाविक धर्म है। ब्रह्माग्नि से परमेष्ठी का अम्भ पैदा होता है। देवाग्नि से मरीचि, भूताग्नि से मर तथा अन्तरिक्ष्य चन्द्रमा (प्राणमय वैश्वानर) से श्रद्धा नामक पानी पैदा होता है। अग्नि ऊर्जा है, पानी पदार्थ है। वायु से अग्नि उत्पन्न होता है। पानी से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी में पांचों महाभूत रहते हैं। लक्ष्मी कहते हैं पृथ्वी को, विष्णुपाद भी उसी को कहते हैं।
जल के स्वामी (सोमवंशी) विष्णु हैं। पृथ्वी शरीर है- जल से निर्मित होता है। स्त्री के शरीर से ही सन्तान का शरीर बनता है। विष्णु ही अव्यय रूप आत्मा है। विष्णु अव्यय है, आत्मा अक्षर है, शरीर (लक्ष्मी) क्षर है। लक्ष्मी अर्थवाक् है। सरस्वती शब्दवाक् है। क्षर पुरुष की पांच कलाएं- प्राण, आप, वाक्, अन्न, अन्नाद के पंचीकरण से ही विश्वसृष्टि, पंचजन, २५ पुरंजन, पुर आदि का निर्माण होता है। ये सारा अर्थवाक् है। विश्व का स्थूल स्वरूप है। शरीरों का निर्माण भी पंच महाभूतों की चिति से ही होता है, मातरिश्वा वायु के योग से। अन्न ही अन्नाद में भुक्त होकर दधि-घृत-मधु-अमृत तत्त्वों से देह का निर्माण करता है। अन्न से ही देह-धातुओं के अन्त में मन का निर्माण होता है, जिसकी कामना का आधार अन्न ही होता है। कृष्ण का कथन है कि-
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7.4)
यहां अष्टधा प्रकृति का वर्णन करते हुए कृष्ण कह रहे हैं कि मेरी प्रकृति आठ प्रकार की होती है- पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार इसमें सम्मिलित रहते हैं।
इस अपरा (क्षर) प्रकृति का निर्माण अन्न से होता है। जीवात्मा को यही आकृति रूप में आवरित करती है। मन-बुद्धि-अहंकार प्रकृति विग्रह रूप में कार्य करते हैं। शरीर के उपकरण रूप है। मन की मर्जी (कामना) ही शरीर के स्थूल कर्मों का आधार बनती है।
सूक्ष्म सृष्टि अदृश्य रूप में- प्राणों के स्पन्दन रूप में- कार्य करती है। यहां शब्दवाक् प्रधानता लिए रहती है। सूक्ष्म सृष्टि का केन्द्र हृदय होता है। अक्षर पुरुष रूप परा प्रकृति जीव की क्रियाओं का मूल संचालन करती है। एक ओर इसका सम्बन्ध अव्यय पुरुष (कारण शरीर) से होता है। अक्षर और अव्यय दोनों की मिलकर सूक्ष्म शरीर संज्ञा है। दोनों साथ रहते हैं। हृदय केन्द्र में ही ब्रह्म की प्रतिष्ठा रहती है। वही ब्रह्मा अक्षर प्राण के रूप में हृदय कहलाता है। गति-आगति-स्थिति रूप यही यजु: पुरुष है। ब्रह्मा ही इन्द्र-रूप गति और विष्णु रूप आगति होता है। अत: तीनों ही अक्षर प्राण मिलकर हृदय कहलाते हैं। अक्षर पुरुष के दो अन्य प्राणों- अग्नि और सोम के मिलन से अक्षर ही अमृत-मृत्यु रूप कार्य करता है- जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्..। (गीता 7.5)
अक्षर पुरुष सृष्टि का निमित्त कारण है। क्षर पुरुष उपादान कारण। स्थूल सृष्टि में, मानव योनि में यही स्त्री (योषा) का स्वरूप है। निमित्त कारण भी वही बनती है, उपादान कारण तो स्पष्ट ही है। सम्पूर्ण भूत दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होते हैं। अव्यय पुरुष ही सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय है। (गीता 7.6)
अक्षर अथवा सूक्ष्म सृष्टि (शरीर) प्राण अथवा देव सृष्टि है। प्राण ही देव कहलाते हैं। सृष्टि के मूल 33 प्राण ही 33 देवता हैं। परा प्रकृति चूंकि सूक्ष्म है अत: इसे अधिदेव कहते हैं। इसीलिए स्त्री के परा रूप की ‘दिव्य’ संज्ञा है। पुरुष सम्पूर्ण सृष्टि में साक्षी रूप ही रहता है। जन्म से मोक्ष पर्यन्त माया ही कर्ता है। माया और स्त्री पर्याय है। तब स्त्री की परा-अपरा शक्तियों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इन्हीं दो किनारों के मध्य प्रवाहित रहती है स्त्री। अन्त में पुन: अनन्त में लीन हो जाती है।
पुरुष स्वामी है, प्रकृति रूप स्त्री का। सूर्य से निर्मित बुद्धि सूक्ष्म है, चन्द्रमा-अन्न-पृथ्वी से निर्मित देह स्थूल है। चन्द्रमा मन का भी स्वामी है। अत: शरीर कभी बुद्धिमानी से कार्य करता है, कभी मनमानी से। न केवल बुद्धिमानी हितकारी होती है, न केवल मनमानी। दोनों त्रिगुणी होते हैं। षोड़शी पुरुष भी स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं, किन्तु ब्रह्मांश केवल पुरुष में (बीजरूप) रहता है। यही कारण शरीर के केन्द्र में रहकर नई सृष्टि के लिए वपन करने का मूल तत्त्व है। इसी के विवर्त के लिए माया (स्त्री) को पैदा किया गया। यह दायित्व भी माया को ही सौंपा कि विवर्त के बाद ब्रह्मांश को पुन: ब्रह्म में ही लीन करेगी।
मोक्ष के लिए आत्मा के साथ जीना और मृत्यु के लिए देह के रूप में- यही माया की भूमिका है। पुरुष अपने विवर्त का मूकदर्शक है। सारे अधिकार माया के पास सौंप रखे हैं। अव्यय की मन-प्राण-वाक् कलाओं में श्वोवसीय मन ही इन्द्रिय-सर्वेन्द्रिय एवं महन्मन के रूप में कार्य करता है। इसी से प्राण-वाक्-अक्षर-क्षर रूप में कार्य करते हैं। स्त्री जब पीहर में रहती है, तब उसका इन्द्रियमन, क्षर पुरुष के तत्त्व मुख्य भूमिका में होते हैं। विवाह पूर्व तो होते ही हैं, विवाह के बाद- शेष जीवन भी- पीहर शरीर पोषण-क्षर-निमित्त ही रहता है। वही आल्हाद-खेल-कूद-सहेलियां-मनोरंजन-अवकाश का वातावरण छाया रहता है। आज एकल परिवारों में यह वातावरण उपलब्ध नहीं रहा। अनेक स्थूल-कुण्ठित ऊर्जाओं के बन्धन अब नहीं खुल पाते। मुक्त भावों की अभिव्यक्ति कुन्द होने लगी।
ससुराल में शरीर की कभी प्रधानता नहीं रहती। आत्मा की तुष्टि और पुरुषार्थ चतुष्टय के निर्वहन पर दृष्टि रहती है। जीवन का यह साधना काल होता है। इसका एक भाग सन्तान (ब्रह्म विवर्त) को संस्कारित-पोषित करने का रहता है- ताकि वह श्रेष्ठ समाज एवं श्रेष्ठ देश के निर्माण में- अभ्युदय और नि:श्रेयस में अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। दूसरी ओर पुरुष की पूर्णता का निर्माण, विवर्त, दाम्पत्य रति से देवरति में प्रवेश कराकर सांसारिक दायित्वों से निवृत्त करवाने की भूमिका है। जीवन में भक्ति- सेवा का योग करवाना और अन्तकाल में देहमुक्त होकर जीने का अभ्यास (मानस जाप में प्रवेश), शुद्ध शब्द ब्रह्म रूप में नई जीवन शैली में प्रवेश ही सूक्ष्म शरीर- आत्मारूप- से युक्त होना है। जीवात्मा यहीं से जीवन मुक्त होकर मोक्षमार्ग का यात्री बनता है। माया का अलग हो जाना ही आवरण मुक्ति है। स्त्री रूप आवरण से मुक्त होना या करना भी स्त्री रूप पत्नी/माया का ही कार्यक्षेत्र है। अत: मोक्ष होने तक पत्नी भी जन्म-जन्म साथ रहती है।
-क्रमश: gulabkothari@epatrika.com
Published on:
30 Aug 2025 10:08 am
बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
