
पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी (फोटो: पत्रिका)
महाभारत के युद्ध में भले ही कौरव-पाण्डव आमने-सामने थे, किन्तु न कृष्ण की भूमिका कम थी, न ही शकुनि की। युद्ध के परिणाम आने पर न पाण्डव चर्चा में रहे, न ही कौरव। सर्वाधिक चर्चा, हार-जीत के दांव-पेच का श्रेय और भूमिका दोनों तरह के सलाहकारों की आज तक बनी हुई है। युद्ध तो चर्चा का निमित्त बनकर रह गया।
उपचुनाव में किसी भी प्रदेेश में, चुनाव हारने के बड़े अर्थ होते हैं। आज ही बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम भी आए। वहां विपक्ष हारा, तब सत्ता पक्ष अपने ही प्रदेश में क्यों नहीं जीत पाया। पिछले लोकसभा चुनाव में भी शकुनि के ‘पासे’ चले थे। पिताजी की अस्थियों के ही थे। भाजपा के विधायक रहे व्यक्ति को कांग्रेस का टिकट दिलाकर भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़ाया था। मुंह की खानी पड़ी। क्या बिहार का मतदाता नहीं जानता कि लालू की सरकार बनी तो क्या परिणाम होंगे? आज तक भी लालू यादव और उनका परिवार सजा-पर-सजा का संघर्ष झेल रहा है। सरकार ने कभी कुछ दिया ही नहीं। ‘चारा घोटाला’ बिहार की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बन गया। ‘खानदान’ देखा जाता है। भाजपा ने देश की उखड़ी सांसों को लौटाया है। राजनीति में सब जायज है यदि लोककल्याण भी साथ चले। कांग्रेस राष्ट्रहित के मुद्दों पर अपनी भूमिका से भागती है। नेता कर्मठ नहीं रहे। भ्रष्टाचार की कमी भाजपा में भी नहीं है। मर्यादाहीन आचरण बहुमत का परिणाम होता है। सब स्वच्छन्द हो गए हैं। कोई नियामक तंत्र आज प्रभावी नहीं है। बस केन्द्र का आलम्बन है।
जिन भाजपा नेताओं ने भाजपा को हराने का ताण्डव किया था, वे स्वयं अपना जमाना जनता को दिखा चुके थे। जो उम्मीद लालू यादव से नहीं रही, इनसे भी नहीं रही। चुनाव (अंता) की लगाम इन्हीं के हाथों में थी। लोग इनसे पूर्व परिचित थे। दूसरी बात, राज्य की भाजपा सरकार भी अधिकांशत: केन्द्र की नीतियों और योजनाओं के सहारे चल रही है। मंत्रियों के मुखौटे उतरते रहते हैं। प्रशासन पर सरकार की पकड़ अभी भी ढीली है। निर्णय की क्षमता और दण्ड देने का साहस अभी कम है।
भाजपा आज भी अपराधियों को सहन कर रही है। भ्रष्टाचार में आज न राजस्थान पिछड़ा है न ही मध्यप्रदेश। पसंद कोई नहीं करता, किन्तु निवारण तो अफसर ही कर सकते हैं। अपने पांव पर कुल्हाड़ी कौन मारे।
सरकारों में पार्टियों की पहचान खोई। गहलोत सरकार हो या वसुंधरा सरकार, एक ही बात है। एक जमाना था जब जनसंघ के कार्यकर्ता बात-बात में सड़क पर जनसमस्याओं को लेकर उतर जाते थे। संघ का जोर प्रचण्ड शक्ति और राष्ट्रभक्ति पर होता था। समाज को संगठित करना ही देशभक्ति और उन्नति की कसौटी था।
सन 1993 में श्रद्धेय बाबू सा. ने संघ के स्थापना दिवस पर मुख्य वक्ता के रूप में नागपुर में कहा था, ‘प्रचण्ड शक्ति और ‘प्रखर राष्ट्रभक्ति’ की शब्दावली आज सुनने में नहीं आती।’ बाला साहब देवरस भी उपस्थित थे।
अंता की हार के कई अर्थ है। विपक्ष की शक्ति का आकलन किए बिना ही मैदान में उतर जाना। अपने प्रत्याशी की दक्षता पर भरोसे का आधार क्या था। अंता के ही पड़ोस के घर में भाजपा ने स्वयं का ही चीरहरण किया। इसके बावजूद दु:शासन को कमान सौंपना कहां तक उचित था। पार्टी प्रत्याशी को हराने के प्रयास इन्हीं रणबांकुरों ने किए थे।
अंता की बाजी पहले ही दिन हार चुके थे। अमित शाह क्यों मौन थे, क्यों इतना घटिया दांव खेला गया, इस विषय पर विचार भी हो, भावी दृष्टि से निर्णय भी साथ ही हो जाए। दूसरे प्रदेश में जीतने वाले अपने प्रदेश में हार जाएं, पचा पाना कठिन है। कांग्रेस बधाई की पात्र है।
gulabkothari@epatrika.com
Published on:
15 Nov 2025 07:53 am
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