शिक्षा प्रणाली में बदलाव के दौर में शिक्षक की भूमिका भी बदलती रही है। गुरुकुल परम्परा में ज्ञान लेने वाले शिष्य भी अब कम ही हैं तो चटशालाओं के माध्यम से अपने घर पर ही शाला चलाते शिक्षक भी नही हैं। शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) जरूर शिक्षकों का स्मरण कराता रहता है। कुलिश जी ने तीस बरस पहले ही हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली के स्वरूप की चर्चा करते हुए लिखा कि मैकाले की शिक्षा प्रणाली में अब शिक्षक की बजाय स्कूल भवनों पर जोर हो गया है। आलेख के प्रमुख अंश:
पुरानी शिक्षा पद्धति का स्वरूप यह था कि शिक्षक अपने घर पर ही शाला चलाता था। विद्यार्थी वहीं पढऩे जाते थे। शिक्षक के योग-क्षेम की व्यवस्था अपनी मर्जी से बच्चों के मां-बाप करते थे। प्रत्येक मास की प्रतिपदा (पड़वा) को सीधा-पेट्या (भोजन सामग्री) अवश्य नियमपूर्वक जोशी जी (शिक्षक) के घर पहुंचा दी जाती थी। गुरु पूर्णिमा और अन्य पर्वों पर भी गुुरुजी का विशेष ध्यान रखा जाता था। इन घरेलू चटशालाओं में बच्चों को गणित और वर्णमाला तो पढ़ाई जाती ही थी । कहीं-कहीं ऊंची शिक्षा भी दी जाती थी, जिसमें रामायण, महाभारत, गीता जैसे काव्यशास्त्र पढ़ाए जाते थे। ऐसे संस्थान भी सैंकड़ों थे जहां कॉलेज जैसी ऊंची शिक्षा दी जाती थी। समय बहुत-कुछ बदल गया है। हमारी शैक्षणिक आवश्यकताएं भी बदल गईं परन्तु फिर भी गणित और वर्णमाला जैसी आवश्यकता आज तक बनी हुई है। आज भी हम उस प्रणाली का उपयोग क्यों नहीं करते? जब से मैकाले छाप शिक्षा प्रणाली चालू हुई तब से हमारा जोर शिक्षक के बजाय स्कूल भवनों पर अधिक हो गया। सरकारीकरण के कारण शिक्षक भी राज्याश्रित वर्ग या वेतनभोगी बन गए। शिक्षक की इच्छा से बड़ी इच्छा अब स्कूल इंस्पेक्टर की हो गई। पहले अभिभावक, शिक्षक के योगक्षेम की व्यवस्था करते थे, परन्तु कोई शिक्षक उनके अधीन नहीं था।
यदि पुरानी पद्धति का यथेष्ट उपयोग किया जाता या उसे मान्यता देकर चालू रखा गया होता तो हमारा देश कभी का साक्षर हो गया होता। उन शालाओं में जो गणित पढ़ाई जाती थी वह उम्र भर काम में आती थी। उस वर्णमाला की शिक्षा में वर्ण के स्वरूप को इस तरह समझाया जाता था कि सारी सृष्टि समझने की क्षमता पैदा हो जाए। उदाहरण है ‘सिद्धौ वर्णा: समामनाय: ’अर्थात वर्ण समाम्नाय सिद्ध हैं। वर्ण एक नित्य पदार्थ है। वह भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने आता है। इन भिन्न रूपों को वर्णमाला की पढ़ाई में भलीभांति समझा दिया जाता। अब जरा सोचें कि इस छोटी सी बात को समझने के लिए न तो कोई कमीशन बैठाने की जरूरत है और न कोई नई नीति बनाने की जरूरत है।
साक्षरता के लिए खर्चीले कार्यक्रम
सरकार के सिर से प्राथमिक शिक्षा का सारा भार उतर जाता यदि वह इतना सा तय कर लेती कि पुरानी चटशाला पद्धति को चालू रखती। उसे प्राथमिक शिक्षा के समान कर दिया जाता। उस पढ़ाई के बाद माध्यमिक शालाओं में सीधे प्रवेश दे दिया जाता। प्राथमिक शाला के हजारों भवन, लाखों शिक्षक एव पाठ्यसामग्री का भार सरकार को उठाना नहीं पड़ता। कुछ विशेष प्रयत्न करके ऐसे क्षेत्रों में भी शालाएं खुलवाई जा सकती थीं जो उपेक्षित हैं। यह काम भी गैर सरकारी तौर पर किया जा सकता था। मेरे कथन में यदि कोई अव्यावहारिक कठिनाई है तो उसे दूर करने का उपाय सोचा जा सकता था। साक्षरता के लिए तरह-तरह के खर्चीले कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम आज सरकार चलाती है क्योंकि यह अमरीका से ‘आइडिया’ आयात किया गया है।
(3 मई 1994 को ‘शिक्षा को रोजगार से हर्गिज न जोड़ें ’ आलेख के अंश )
शिक्षक भी नौकर और शिक्षा पाने वाला भी
अभी हम यह नहीं सोच पाए कि हमारे बच्चों को क्या पढ़ाया जाए? हम यह भी नहीं सोच पाए कि हमारी अगली पीढ़ी किस तरह की बने? शिक्षक भी नौकर है और शिक्षा पाने वाला भी नौकर ही बनना चाहता है। नौकरी प्रधान इस शिक्षा को स्वावलम्बन की दिशा देना प्रमुख शर्त होनी चाहिए। कैसी विडम्बना है कि शिक्षित बेरोजगार भी देश की अनेक समस्याओं में से एक समस्या है। शिक्षा पाकर भी पेट की चिंता में ही भटकना है तो अशिक्षित और पशु से वह किस प्रकार भिन्न होगा। पेट तो अशिक्षित को भी, पशु को भी भरना है।
( कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से )
Updated on:
04 Sept 2025 09:21 pm
Published on:
04 Sept 2025 09:19 pm