
विजया के.रहाटकर, अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग -भारत के हर कोने में, जब भी मैं महिलाओं से मिलती हूं- किसी गांव की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से लेकर किसी बड़े शहर की प्रोफेशनल तक- एक बात बार-बार महसूस होती है। हमारी महिलाएं दूसरों के लिए जीना बखूबी जानती हैं, पर अपने लिए जीना भूल जाती हैं। घर, परिवार, बच्चों और काम की जिम्मेदारियों के बीच, उनका स्वास्थ्य अक्सर उनकी अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे चला जाता है। यदि कभी वह खुद को प्राथमिकता देने की कोशिश भी करें तो समाज उन्हें 'स्वार्थी' या 'ज्यादा सोचने वाली' कहकर रोक देता है।
अब समय आ गया है कि हम स्वास्थ्य को केवल शारीरिक दृष्टि से नहीं, बल्कि समग्र दृष्टि से देखें- जिसमें तन, मन और आत्मा तीनों का संतुलन हो। मानसिक स्वास्थ्य- वह पहलू, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं- अक्सर महिलाएं बाह्य रूप से पूर्णत: स्वस्थ प्रतीत होती हैं, किंतु उनके अंतर्मन में गहन थकान और तनाव विद्यमान रहता है। वह मुस्कुराती है, लेकिन भीतर टूट चुकी होती है। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में तनाव, अकेलापन, मन का बोझ और मानसिक दबाव आम हैं, लेकिन इनके बारे में बात करने की हिम्मत बहुत कम लोग जुटा पाते हैं। गांवों में तो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अब भी झिझक है। महिलाएं अपनी तकलीफ दिल में दबा लेती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि 'लोग क्या कहेंगे।' हमें यह सोच बदलनी होगी। मानसिक स्वास्थ्य कोई विलासिता नहीं- यह हर स्त्री का मौलिक अधिकार है।
नीतियों से जमीनी बदलाव तक: राष्ट्रीय महिला आयोग यह मानता है कि अगर महिला सशक्तीकरण को सच में जमीनी स्तर तक पहुंचना है, तो स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन उसकी पहली सीढ़ी होनी चाहिए। इसी सोच के अंतर्गत आयोग देशभर में संस्थानों, उद्योग जगत और नीति-निर्माताओं के साथ मिलकर ऐसी व्यवस्था की दिशा में काम कर रहा है, जहां हर महिला को सुनने वाला कान, समझने वाला मन और मदद करने वाला हाथ, तीनों मिल सकें। आयोग यह भी चाहता है कि हर प्राथमिक स्वास्थ्य में प्रशिक्षित परामर्शदाता की उपलब्धता सुनिश्चित हो, ताकि महिलाएं सुरक्षित वातावरण में अपनी बात कह सकें और समय रहते सहायता प्राप्त कर सकें। यह पहल केवल स्वास्थ्य का नहीं, गरिमा का प्रश्न है।
कार्यस्थलों पर स्वास्थ्य का नया विमर्श: आज जब महिलाएं हर क्षेत्र में योगदान दे रही हैं, तो यह जरूरी है कि कार्यस्थलों पर भी मानसिक कल्याण नीतियों को प्राथमिकता दी जाए। तनावमुक्त, सम्मानजनक और संवेदनशील कार्य-संस्कृति ही महिलाकर्मियों को उनका सर्वोत्तम देने में सक्षम बना सकती है। निजी कंपनियों, शैक्षणिक संस्थानों और प्रशासनिक तंत्र- सभी से अपेक्षा की जाती है कि वे मानसिक स्वास्थ्य को मानव संसाधन नीति का अभिन्न हिस्सा बनाएं। अंतत: एक स्वस्थ स्त्री ही परिवार का आधार होती है और एक संतुलित स्त्री ही समाज की दिशा तय करती है।
आज 'विकसित भारत' की परिकल्पना तभी साकार होगी, जब भारत की हर बेटी, हर मां, हर बहन स्वस्थ तन और शांत मन के साथ आगे बढ़े। जब स्त्री मन से मजबूत होती है, तो समाज की जड़ें और गहरी होती हैं। आइए, यह सुनिश्चित करें कि हर स्त्री को केवल जीने का नहीं, पूर्णता से खिलने का अवसर मिले।
Published on:
21 Nov 2025 12:35 pm

