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समानता की शुरुआत शब्दों से: भाषा बदलिए, समाज बदलेगा

ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री

भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान हरमनप्रीत कौर ने विश्व कप जीतने के बाद एक ऐसी तस्वीर साझा की थी, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा। तस्वीर में वह ट्रॉफी को सीने से लगाए हुए हैं और उनकी टी-शर्ट पर लिखा है: ‘क्रिकेट इज ए जेंटलमैन’स गेम।’ यह दृश्य केवल विजय का नहीं, बल्कि इतिहास की उस विडंबना का प्रतीक है, जहां भाषा के पास उनके लिए कोई दूसरा शब्द ही नहीं था। हरमनप्रीत को ‘बेस्ट बैट्समैन’ कहा गया- ‘बैटर’ नहीं। यह उस भाषाई परंपरा का परिणाम है, जिसने कभी यह कल्पना ही नहीं की थी कि महिलाएं भी क्रिकेट जैसे ‘जेंटलमैन गेम’ में परचम लहराएंगी।

दरअसल, भाषा ने अपने अर्थ-संसार को सदियों से पुरुष अनुभवों पर केंद्रित रखा- इसलिए आज भी अनेकों शब्दों का स्त्री-समानार्थी या तटस्थ रूप मौजूद ही नहीं है। यह केवल क्रिकेट की बात नहीं, लगभग हर खेल में पुरुषों को ही ‘मान’ माना गया है- जैसे खेल का अर्थ ही ‘पुरुषत्व’ का पर्याय हो। मुद्दा केवल खेल का नहीं, अपितु जीवन की उस वास्तविकता का है, जहां जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष को ही केंद्र माना गया है। घर से लेकर कार्यालय तक, शिक्षा से लेकर राजनीति और विज्ञान तक- हर जगह वही दृष्टि प्रभावी है जिसमें स्त्री ‘अन्य’ है, ‘मुख्य नहीं’। हमारी भाषा उसी सोच की वाहक है- जहां पुरुष अनुभव को सामान्य और स्त्री अनुभव को विशिष्ट या अपवाद के रूप में देखा जाता है।

भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि समाज की मानसिक संरचना का आईना है। हम जैसे शब्द बोलते हैं, वैसे ही सोचते हैं और जब शब्दों में ही लिंग का पूर्वाग्रह रचा-बसा हो तो समानता का सपना अधूरा रह जाता है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के एक अध्ययन ने यह दिखाया कि जब हम व्यक्ति, लोग या इंसान जैसे शब्द पढ़ते हैं, तो अधिकांश दिमागों में एक पुरुष की छवि बनती है- स्त्री की नहीं। 630 अरब से अधिक शब्दों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि ‘व्यक्ति’ की सांस्कृतिक परिभाषा आज भी पुरुष-केंद्रित है। यह अंग्रेजी शब्द जो सुनने में तटस्थ लगते हैं- जैसे चेयरमैन, फायरमैन- वास्तव में पुरुषवादी सोच से उपजे हैं। इसीलिए चेयरपर्सन या फायरफाइटर जैसे शब्दों का प्रयोग केवल व्यावरणिक सुधार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सुधार है। यह समस्या केवल भाषा तक सीमित नहीं रही। यह अब उन मशीनों और एल्गोरिद्म में भी समा गई है, जो हमारे निर्णय तय करते हैं- नौकरी से लेकर सुरक्षा और स्वास्थ्य तक। इस प्रवृत्ति का चर्चित उदाहरण ए-ई- कॉमर्स कंपनी का है। कंपनी ने कुछ वर्ष पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित भर्ती प्रणाली विकसित की, जो पुराने आवेदन पत्रों के आंकड़ों से सीखकर यह तय करती थी कि कौन-सा उम्मीदवार नौकरी के लिए ‘सबसे योग्य’ है। शुरुआत में इसका उद्देश्य था- मानव पक्षपात को समाप्त करना, पर परिणाम इससे बिलकुल विपरीत निकले। इस प्रणाली ने स्वतः ही महिलाओं को तकनीकी और प्रबंधकीय पदों से कम उपयुक्त बताना शुरू कर दिया।

जांच में पाया गया कि जिस आंकड़े पर यह एल्गोरिद्म प्रशिक्षित हुआ था, वह उन वर्षों के आवेदनों पर आधारित था, जहां अधिकतर उम्मीदवार पुरुष थे। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने इस असमानता को मान्यता दी और जब भी किसी आवेदन में वीमंस कॉल या फीमेल जैसे शब्द आते, तो उसे कम प्राथमिकता दी जाती। यह उदाहरण बताता है कि तकनीकी प्रणाली भी उतनी ही पक्षपाती हो सकती है जितनी वह भाषा, जिससे वह प्रशिक्षित होती है। इसी प्रवृत्ति को और गहराई से उजागर करता है हालिया अध्ययन- 'बॉयज अगेंस्ट वीमन एंड गर्ल्स इन लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स'। यह अध्ययन उन बड़े भाषा मॉडलों पर केंद्रित था जो जनरेटिव एआई तकनीकी के आधार हैं, जिनमें ओपनएआई के GPT-3.5 और GPT-2 तथा मेटा का लामा-2 शामिल हैं। ओपन-सोर्स लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स विशेष रूप से पुरुषों को उच्च-स्थिति वाले पेशों जैसे इंजीनियर, शिक्षक, चिकित्सक में दर्शाते हैं, जबकि महिलाओं को अक्सर नौकरानी, रसोइया आदि भूमिकाओं में सीमित किया गया। लामा-2 द्वारा उत्पन्न पुरुषों की कहानियों में सबसे अधिक आने वाले शब्द थे- जंगल, समुद्र, साहसिक। वहीं महिलाओं की कहानियों में शब्द थे- बगीचा, प्रेम, सौम्य।

भाषा, समाज और तकनीकी तीनों के इस त्रिकोण में असमानता की जड़ यहीं है- हमारी दृष्टि। जब तक भाषा पुरुष के लिए ‘व्यक्ति’ का पर्याय बनी रहेगी, तब तक कृत्रिम बुद्धिमत्ता भी उसी पक्षपात को पुनः उत्पादित करती रहेगी। समानता की शुरुआत शब्दों से होती है क्योंकि शब्द ही वह बीज हैं, जिनसे समाज की चेतना फलती-फूलती है। यह तय है कि जब शब्द बदलेंगे, तो विचार बदलेंगे और जब विचार बदलेंगे, तभी समाज समान होगा।