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चिकित्सा शिक्षा में दोहरा रवैया गहरी चिंता का विषय

प्रो. अशोक कुमार, पूर्व कुलपति गोरखपुर विश्वविद्यालय

भारत में चिकित्सा शिक्षा का क्षेत्र लगातार विकसित हो रहा है, जिसमें सरकारी और निजी दोनों संस्थानों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के अनुसार इनकी संख्या लगातार बढ़ भी रही है। सीटों के मामले में, दोनों प्रकार के कॉलेजों में लगभग 50-50 का वितरण है। चिकित्सा शिक्षा संस्थानों में यह वृद्धि देश में डॉक्टरों की कमी को दूर करने में महत्त्वपूर्ण है, लेकिन एक गंभीर समस्या भी उजागर करती है—सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों के प्रति नियामक निकायों, विशेषकर एनएमसी का दोहरा मापदंड। यह रवैया न केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़े करता है, बल्कि छात्रों के भविष्य को भी खतरे में डालता है।

सरकारी मेडिकल कॉलेजों का मुख्य उद्देश्य जनता को सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना है। हालांकि, ये संस्थान अक्सर संसाधनों की कमी से जूझते हैं। शिक्षकों के खाली पद, पुरानी प्रयोगशालाएं और अपर्याप्त उपकरण एक आम समस्या है। राजस्थान हाईकोर्ट में मेडिकल कॉलेजों में शिक्षकों की कमी को लेकर एक जनहित याचिका (पीआइएल) पर सुनवाई हुई थी। सुनवाई के दौरान यह बात सामने आई थी कि राज्य के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में करीब 40-50% शिक्षकों के पद खाली हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के 22 सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 2448 स्वीकृत पदों में से 1285 पद खाली पड़े हैं, जो 52% की कमी दर्शाता है। उत्तर प्रदेश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी लगभग 50% शिक्षकों के पद रिक्त हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 5000 से अधिक मेडिकल प्रोफेसरों की कमी है। दिल्ली के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी 200 से अधिक पद रिक्त होना सामने आया था।

इसके बावजूद, एनएमसी और सरकार इन कॉलेजों के प्रति अपेक्षाकृत उदार रुख अपनाते हैं। निरीक्षण के समय, कई कॉलेजों में फर्जी तरीकों का सहारा लिया जाता है। अस्थायी फैकल्टी (जिसे ‘घोस्ट फैकल्टी’ भी कहते हैं) को सिर्फ निरीक्षण के समय दिखाया जाता है। दूसरे कॉलेजों से शिक्षकों को कुछ समय के लिए दूसरे मेडिकल कॉलेज से स्थानांतरण कर दिया जाता है या ऑनलाइन शिक्षण दस्तावेज तैयार किए जाते हैं, ताकि कॉलेज के पास पर्याप्त फैकल्टी दिखे। कभी-कभी नए मेडिकल कॉलेज जिसमें बुनियादी सुविधाएं नहीं होतीं, उनके विद्यार्थियों को दूसरे मेडिकल कॉलेज के साथ संबंधित कर दिया जाता है। इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होती। इसका खामियाजा उन छात्रों को भुगतना पड़ता है जो मेहनत और लगन से इन कॉलेजों में प्रवेश पाते हैं।

इसके विपरीत, एनएमसी निजी मेडिकल कॉलेजों पर कड़ी निगरानी रखता है। इन कॉलेजों को मान्यता प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए सख्त मानदंडों का पालन करना अनिवार्य है। इनमें पर्याप्त बुनियादी ढांचा, पर्याप्त संख्या में योग्य शिक्षकों का होना तथा नियमित ऑडिट शामिल हैं। इन नियमों के कारण निजी कॉलेजों में लगभग संपूर्ण बुनियादी ढांचा होता है।

यह दोहरा मापदंड कई गंभीर प्रश्न खड़े करता है और इसके नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। इस प्रक्रिया में मेधावी छात्रों के साथ अन्याय हो जाता है। नीट जैसी देश की सबसे कठिन परीक्षा में शीर्ष रैंक हासिल करने वाले छात्र, जो अपनी बौद्धिक क्षमता के दम पर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाते हैं, उन्हें अक्सर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। यह एक बड़ी विडंबना है। वे योग्यता के आधार पर चुने जाते हैं, लेकिन व्यवस्था की खामियों के कारण उन्हें वह नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं। यह उनकी मेहनत और उनके सपनों पर एक गहरा आघात है। जब देश की सबसे प्रतिभाशाली प्रतिभाएं ऐसी परिस्थितियों में पढ़ती हैं जहां अच्छी प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय या अनुभवी शिक्षक न हों, तो उनका कौशल अधूरा रह जाता है। इसका नुकसान न केवल उन छात्रों को होता है, बल्कि पूरे देश को होता है, क्योंकि हमें अच्छी तरह से प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी का सामना करना पड़ता है।

यह स्थिति आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के लिए और भी भारी पड़ती है। उन्हें पता होता है कि वे महंगी फीस वाले निजी कॉलेजों में नहीं जा सकते, इसलिए वे सरकारी कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। जब वे खराब बुनियादी ढांचे का सामना करते हैं, तो यह उनकी और उनके परिवार की उम्मीदों पर पानी फेर देता है। इस अन्याय को खत्म करने के लिए, चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में बड़े पैमाने पर सुधार की आवश्यकता है।

सरकार को सरकारी कॉलेजों के लिए पर्याप्त बजट आवंटित करना चाहिए ताकि वे बुनियादी ढांचे, उपकरण और शिक्षकों की जरूरतों को पूरा कर सकें। निरीक्षण प्रणाली को कठोर बनाया जाना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी को बढ़ावा दिया जा सकता है। निजी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को सरकारी संस्थानों के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है ताकि संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सके। जब तक मेधावी छात्रों को उनकी हक की शिक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत एक मजबूत और स्वस्थ राष्ट्र नहीं बन पाएगा।

भारत में मेडिकल शिक्षा की स्थिति

देश में चिकित्सा शिक्षा लगातार विस्तार कर रही है और आज इसकी तस्वीर काफी बड़ी हो चुकी है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के अनुसार वर्तमान में भारत में कुल 780 मेडिकल कॉलेज संचालित हो रहे हैं। इनमें से 430 सरकारी कॉलेज हैं, जबकि 350 निजी कॉलेज चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध करा रहे हैं।

सीटों की संख्या भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। देशभर में अब 1.18 लाख से ज्यादा एमबीबीएस सीटें उपलब्ध हैं। यह आंकड़ा इस बात का प्रमाण है कि भारत चिकित्सा क्षेत्र में नई पीढ़ी के डॉक्टर तैयार करने के लिए निरंतर प्रयास कर रहा है।