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वे 15 महिलाएं जिन्होंने संविधान को मानवीय दिशा दी-और आज हम उनसे क्या सीखना भूल रहे हैं

संविधान हमें दिशा देता है, लेकिन मंजिल तक समाज को खुद पहुंचना होता है- यही दक्षायनी का संदेश था।

जयपुर

Opinion Desk

Nov 26, 2025

सीमा शर्मा, स्वतंत्र लेखिका

भारत का संविधान किसी एक समय की राजनीतिक जरूरत से नहीं, बल्कि उस दौर की जनचेतना से जन्मा था, जब देश विभाजन की पीड़ा, हिंसा और असुरक्षा से गुजर रहा था। ऐसे समय में संविधान केवल शासन का ढांचा नहीं था, यह देश को जोडऩे वाला नैतिक आधार था। इस आधार को सबसे गहरी दिशा संविधान सभा की उन 15 महिलाओं ने दी, जिनका योगदान अक्सर चर्चाओं से गायब रह जाता है हालांकि उनकी दृष्टि आज के भारत को समझने के लिए पहले से कहीं अधिक जरूरी है।

सबसे पहले आती हैं हंसा जीवराज मेहता, जिन्होंने संविधान से पूछा- यह दस्तावेज किसके लिए लिखा जा रहा है? नागरिक के लिए या समाज में पहले से स्वीकृत सत्ता-मानसिकताओं के लिए? उन्होंने साफ कहा कि समानता किसी दया से नहीं आती, यह राज्य और समाज दोनों की जिम्मेदारी है। आज भी जब कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा, डिजिटल उत्पीडऩ, नेतृत्व-स्तर पर कम प्रतिनिधित्व की खबरें सामने आती हैं तो लगता है कि हंसा मेहता का सवाल अब भी अधूरा है। संविधान ने समान अधिकार दिए, पर क्या समाज ने उन्हें व्यवहार में बदला?

दक्षायनी वेलायुधन की चिंता इससे भी कठोर थी। एक दलित महिला के रूप में उन्होंने कहा था कि कानून बदलने से पहले समाज की सोच बदलनी चाहिए- वरना बराबरी कागज़ पर रह जाएगी। पृथक निर्वाचक मंडलों का उन्होंने इसलिए विरोध किया, क्योंकि वे समझती थीं कि राजनीतिक अलगाव सामाजिक दूरी को और पक्का कर देता है। आज भी दलितों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव के आंकड़े बताते हैं कि हमारी चुनौतियां 75 साल पहले जैसी ही हैं। संविधान हमें दिशा देता है, लेकिन मंजिल तक समाज को खुद पहुंचना होता है- यही दक्षायनी का संदेश था।

विभाजन की भयावह पृष्ठभूमि में कुदसिया ऐजाज रसूल ने जो कहा था, वह आज के माहौल में और भी प्रासंगिक हो जाता है। उन्होंने चेताया था कि नागरिकता और अधिकार धर्म या पहचान के आधार पर नहीं बंटने चाहिए। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा विशिष्ट राजनीतिक सुविधाओं में नहीं, बल्कि साझा नागरिकता में है। आज जब ‘पहचान’ सार्वजनिक बहसों का केंद्र बन चुकी है, कुदसिया की यह सीख याद दिलाती है कि लोकतंत्र की ताकत विविधता को साथ लेकर चलने में है, उससे दूरी बनाने में नहीं।

अम्मू स्वामीनाथन का आग्रह भी उतना ही महत्वपूर्ण था कि संविधान की भाषा ऐसी हो, जिसे आम नागरिक बिना भय के पढ़ और समझ सके। उनका तर्क सरल था- कानून तब तक प्रभावी नहीं होता, जब तक उसकी भाषा नागरिक की भाषा न बने। आज जब कानूनी प्रक्रियाएं और नीतियां आम जनजीवन से दूर होती जा रही हैं, तो यह सवाल फिर उठता है- क्या लोकतंत्र की भाषा आम जनता तक पहुंच रही है, या वह सरकारी दस्तावेजों में कैद होकर रह गई है?

इसी तरह, राजकुमारी अमृत कौर ने स्वास्थ्य को, दुर्गाबाई देशमुख ने न्याय और शिक्षा को, रेनुका रे ने उत्तराधिकार और समान नागरिकता को और सुचेता कृपलानी ने श्रमिक अधिकारों और महिला सुरक्षा को संविधान में स्पष्ट स्थान दिलाया। इन सभी विषयों पर प्रगति तो हुई है, पर विषमता अब भी गहरी है।

पूर्णिमा बनर्जी का चेतावनी स्वर आज की डिजिटल दुनिया में नई अर्थवत्ता लेकर सामने आता है। उन्होंने कहा था कि स्वतंत्रता केवल लिखित अधिकार नहीं है, यह नागरिक की वास्तविक सुरक्षा, अभिव्यक्ति और गोपनीयता से बनती है। आज जब डेटा निगरानी, ऑनलाइन सेंसरशिप और एल्गोरिद्म पक्षपात जैसे नए खतरे उठ खड़े हुए हैं, तो लगता है कि उनकी चिंता समय से बहुत आगे की थी।

मालती चौधरी, कमला चौधरी, लीला रॉय और पद्मजा नायडू ने देश के सबसे मौलिक मुद्दों—ग्रामीण विकास, आदिवासी अधिकार, सांस्कृतिक संरक्षण और शिक्षा को संविधान की सोच में आवश्यक स्थान दिलाया। उनकी चिंता थी कि यदि विकास की रफ्तार कुछ समूहों को पीछे छोड़ दे, तो लोकतंत्र अपनी व्यापकता खो देता है। आज भी डिजिटल पहुंच, शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका में जो खाइयां दिखाई देती हैं, वे उनकी चेतावनी की सीधा याद दिलाती हैं।

सरकारें बदलती हैं, नीतियां बदलती हैं, लेकिन लोकतंत्र की आत्मा वही रहती है, जिसे इन महिलाओं ने अपने साहस, संवेदना और दूरदर्शिता से गढ़ा था। संविधान की रक्षा अदालतें जरूर करती हैं, लेकिन उसे जीवित समाज रखता है और समाज वही आगे बढ़ता है, जो न्याय, सम्मान और समानता को अपनी आदत बना ले।