
डॉ. अजीत रानाडे, वरिष्ठ अर्थशास्त्री (द बिलियन प्रेस)
भारत में बड़े आर्थिक सुधार हमेशा विदेशी मुद्रा संकट के बाद ही तेज हुए हैं। 1991 की गर्मियों में विदेशी मुद्रा भंडार लगभग शून्य हो गया था। उस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन ऋण लेना पड़ा और व्यापक आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई। विनिमय दर, आयात शुल्क और बैंकिंग पर लगी कई पाबंदियां हटाई गईं और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी मिली। सबसे बड़ा सुधार था- विनिर्माण और उद्योग क्षेत्र से लाइसेंस राज का अंत। इन कदमों का असर तुरंत दिखा। आर्थिक विकास तेज हुआ और बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आने लगा। दो वर्षों से कम समय में आइएमएफ का कर्ज भी चुका दिया गया। शेयर बाजार और पूंजी बाजार में अभूतपूर्व उछाल आया।
दस साल बाद दूरसंचार और ऊर्जा क्षेत्र में दूसरी पीढ़ी के सुधार शुरू हुए, जिनसे इन क्षेत्रों में तेज प्रगति हुई। आज भी हम दूरसंचार क्रांति के लगातार बढ़ते लाभों का आनंद उठा रहे हैं। आज भारत की अर्थव्यवस्था 1991 की तुलना में दस गुना से भी ज्यादा बड़ी है। भारत विश्व की एक सॉफ्टवेयर महाशक्ति बन चुका है लेकिन 1991 के सुधारों का एक बड़ा वादा अब भी अधूरा है। अगर लाइसेंस राज को हटाना सबसे बड़ा सुधार था तो विनिर्माण क्षेत्र में तेज और व्यापक विस्तार होना चाहिए था। विस्तार तो हुआ, लेकिन सामान्य जीडीपी वृद्धि की रफ्तार से ही। 1991 की तरह आज भी जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा लगभग 16-17 प्रतिशत ही है। कई नीतियों व परियोजनाओं के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि 25 प्रतिशत तक नहीं पहुंच पा रही। इसका सीधा असर औद्योगिक रोजगार पर पड़ा है और पक्की नौकरियों की संख्या कुल श्रमबल में लगभग स्थिर ही है। भारत को यदि अधिक उत्पादकता, आकर्षक रोजगार और तेज आर्थिक विकास चाहिए तो बड़े पैमाने पर औद्योगिक रोजगार बढ़ाना अनिवार्य है। इसके बिना 8-9 प्रतिशत वार्षिक विकास दर हासिल करना संभव नहीं। आम धारणा रही है कि पुराने और जटिल श्रम कानून औद्योगिक रोजगार सृजन में बाधक हैं।
खासकर वस्त्र, जूता-चप्पल, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक्स असेंबली जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों में हम बड़े पैमाने पर विनिर्माण क्षमताएं विकसित नहीं कर पाए, क्योंकि उद्योग बड़े पैमाने पर श्रमिक रखने में हिचकिचाते रहे।इसलिए हमें केवल भर्ती और छंटनी को सरल बनाने तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे श्रम बाजार को औपचारिक रूप देने वाले श्रम सुधारों की आवश्यकता थी। केंद्र सरकार ने पांच वर्ष पूर्व एक महत्वाकांक्षी यात्रा शुरू की थी, जो अब ऐतिहासिक मुकाम पर पहुंची है। 21 नवंबर को भारत ने आधिकारिक रूप से अपनी चार नई श्रम संहिताओं- वेतन संहिता (2019), औद्योगिक संबंध संहिता (2020), सामाजिक सुरक्षा संहिता (2020) और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य-परिस्थिति संहिता (2020) को लागू कर दिया। इन संहिताओं ने पिछले सत्तर वर्षों में धीरे-धीरे बने 29 केंद्रीय श्रम कानूनों का स्थान ले लिया है। यह ऐतिहासिक सुधार नियोक्ताओं पर अनुपालन का बोझ कम करेगा, सामाजिक सुरक्षा का दायरा और व्यापक बनाएगा और श्रम बाजार को बदलती आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप अधिक लचीला व उत्तरदायी बनाएगा। अब भारत के प्रत्येक राज्य को अपने-अपने क्षेत्र में इन चार संहिताओं को लागू करने के लिए आवश्यक नियम और विनियम तैयार करने होंगे।
इन चारों संहिताओं का उद्देश्य श्रमिकों की सुरक्षा, नियोक्ताओं को लचीलापन, कार्यबल को औपचारिक रूप देना और रोजगार सृजन को बढ़ावा देना है। नियोक्ताओं के लिए नए प्रावधानों से अनुपालन आसान होगा और एक ही पंजीकरण, एक ही लाइसेंस और एक ही रिटर्न चाहिए होगा, जबकि पहले दर्जनों कागजी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था। श्रमिकों के लिए सुरक्षा का दायरा और बड़ा हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम वेतन, लिखित नियुक्ति पत्र, स्वास्थ्य व सुरक्षा कवरेज, मातृत्व लाभ और भविष्य निधि (पीएफ) जैसे प्रावधान अब गिग, प्लेटफॉर्म और कॉन्ट्रेक्ट श्रमिकों तक भी पहुंचेंगे। नई संहिताएं, औपचारिक कार्यबल में महिलाओं की अधिक भागीदारी को भी प्रोत्साहित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि श्रम सुधार अपने-आप रोजगार सृजन नहीं करते। रोजगार सृजन केवल श्रम कानूनों पर निर्भर नहीं होता। बेरोजगारी की समस्या- कौशल की कमी, कमजोर आधारभूत ढांचे, जमीन से जुड़े कठोर नियमों और नीतिगत अनिश्चितता जैसी कई वजहों से पैदा होती है। नई श्रम संहिताएं लेन-देन की जटिलताएं तो कम कर सकती हैं, लेकिन वे अपने बल पर श्रम की मांग नहीं बढ़ा सकतीं। बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए आवश्यक है कि मानव पूंजी का विकास हो यानी अप्रेंटिसशिप कार्यक्रमों का विस्तार और कौशल प्रमाणन। बेहतर लॉजिस्टिक्स, सुगम परिवहन, भरोसेमंद बिजली व्यवस्था और मजबूत डिजिटल नेटवर्क का मजबूत आधारभूत ढांचा तैयार हो और तेज विवाद-निपटान व सभी नियामक क्षेत्रों में अनुपालन की सरलता लागू की जाए। इन्हें अपनाए बिना स्थायी और सुरक्षित रोजगार नहीं बढ़ पाएगा।
सच यह है कि रोजगार कानून से नहीं, एक गतिशील श्रम बाजार से आता है। ऐसा तभी संभव है जब श्रमबल 21वीं सदी की जरूरतों के अनुसार कौशल और क्षमता से लैस हो। भारत में रोजगार के नए युग की शुरुआत कौशल-विकास, निवेश और उत्पादकता वृद्धि पर उतनी ही निर्भर करेगी, जितनी अधिकारों के संहिताकरण पर। अगर इन सुधारों के साथ-साथ शिक्षा, कौशल-विकास, आधारभूत संरचना और उद्यमों को सहयोग देने में भी समान गति से निवेश किया गया तो ये सुधार वास्तव में समावेशी विकास की मजबूत नींव बन सकते हैं।
Published on:
26 Nov 2025 03:08 pm

