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पति-पत्नी में सहमति से बने यौन संबंध, फिर भी दर्ज हो गया दुष्कर्म का मुकदमा

Delhi High Court: साल 2023 में पत्नी ने पति पर घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज कराया था। उस दौरान जांच में यह बात पता चली कि शादी के समय पत्नी नाबालिग थी। इसके बाद पुलिस ने इस मामले में पॉक्सो एक्ट के तहत चार्जशीट दाखिल की।

Delhi High Court says sex with minor wife even with consent is punishable
दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला।

Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट ने घरेलू हिंसा और नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में दर्ज मुकदमे को रद करने से इनकार कर दिया। इस मामले में शिकायतकर्ता पत्नी भी बच्चे के साथ कोर्ट में पेश हुई और उसने अपने पति पर कार्रवाई रोकने की गुहार लगाई, लेकिन अदालत ने उसका वो तर्क खारिज कर दिया, जिसमें उसने कहा कि शादी के समय नाबालिग होने के बावजूद उसने अपने पति के साथ सहमति से शारीरिक संबंध बनाए थे। उसका यौन उत्पीड़न कभी नहीं हुआ। अदालत ने कहा कि शादी के लिए दोनों का बालिग होना जरूरी है। अगर एक नाबालिग है तो शारीरिक संबंधों को मान्यता नहीं दी जा सकती।

घरेलू हिंसा के मुकदमे में पॉक्सो और बाल विवाह की धाराएं

दरअसल, मामला राष्ट्रीय राजधानी से जुड़ा हुआ है। साल 2023 में एक युवक की पत्नी ने पति और सास-ससुर पर घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज कराया था। इसके बाद मामले की जांच के दौरान पुलिस को पता चला कि जिस समय पीड़िता की शादी हुई थी, उस समय वो महज 16 साल 5 महीने की थी। इसके बाद मामले में पॉक्सो एक्ट तथा बाल विवाह निषेध कानून के तहत धाराएं बढ़ाई गईं। इसी FIR को रद कराने के लिए पति ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। इस दौरान अदालत में शिकायतकर्ता पत्नी भी अपने बच्चे के साथ पेश हुई। उसने पति के खिलाफ पॉक्सो और बाल विवाह कानून के तहत दर्ज मुकदमे को रद करने की मांग करते हुए मामले को आपसी सहमति से खत्म करने का तर्क दिया।

दोनों पक्षों से सहमति से यौन संबंधों का दिया तर्क

इस मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव नरूला की पीठ ने FIR को रद करने से इनकार दिया और याचिका खारिज कर दी। यह मामला गंभीर संवैधानिक और कानूनी सवाल उठाता है, क्योंकि दोनों पक्षों ने तर्क दिया था कि संबंध उनकी सहमति से थे। आरोपी की पत्नी ने अदालत में यह कहा कि उन संबंधों में कभी कोई यौन उत्पीड़न नहीं हुआ, क्योंकि वह सहमति से सब कुछ कर रही थीं। उन्होंने यह भी बताया कि अब वह बालिग हो चुकी हैं और उनका एक बच्चा भी है। उसकी देखभाल के लिए वह पति पर कार्रवाई नहीं चाहती है।

दिल्ली हाई कोर्ट ने क्या कहा?

अदालत ने कहा है कि भले ही संबंध सहमति से हों, लेकिन जो कानून बनाया गया है, उसमें नाबालिग की सहमति को स्वीकार नहीं किया जा सकता। जस्टिस नरूला की बेंच ने स्पष्ट कहा कि पॉक्सो अधिनियम के तहत यदि पीड़िता की उम्र 18 साल से कम है तो शारीरिक संबंधों के लिए कानून उसकी सहमति को मान्यता नहीं देता। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि संसद ने स्पष्ट रूप से 18 साल की न्यूनतम यौन सहमति की आयु निर्धारित की है। इसके नीचे की उम्र को स्वैच्छा के दावों के बावजूद अपराध माना गया है।

बाल विवाह और यौन शोषण पर कोर्ट का तर्क

हाईकोर्ट ने भी कहा कि यदि ऐसे मामलों में 'सहमति पर आधारित बचाव' स्वीकार कर लिया जाए तो यह एक गलत संदेश देगा। ऐसे मामले यह सोच बना सकते हैं कि शादी या सहमति से नाबालिग संबंधों को बाद में कानूनी रूप देना संभव है, जबकि कानून का उद्देश्य ठीक इसके उलट है। कानून बाल विवाह और यौन शोषण को रोकने के लिए बना है। अदालत ने कहा "यह एक ऐसा मामला है, जहां न्याय की इच्छा बहुत मजबूत है, लेकिन कानून का आदेश उससे भी ज्यादा मजबूत है।" न्यायालय ने यह माना कि आपराधिक कार्रवाई को हटाने से ऐसा प्रतीत होगा कि अदालत यह मान रही है कि बाल विवाह और नाबालिगों के यौन संबंध कानूनी तौर पर स्वीकार्य हो सकते हैं।

अदालत का सामाजिक और संस्थागत दृष्टिकोण

जस्टिस नरूला ने यह कहा कि सिर्फ दो युवा व्यक्तियों की कहानी नहीं है। इनके माता-पिता भी शामिल हैं और उनपर भी आरोप है कि उन्होंने नाबालिग विवाह को सुविधाजनक बनाया था। यदि मुकदमा रद्द कर दिया जाए तो यह बाल विवाह निषेध कानून और पॉक्सो एक्ट के उद्देश्यों के खिलाफ एक प्रकार की न्यायिक स्वीकृति जैसा मामला हो सकता है। अदालत ने यह भी ध्यान दिलाया कि एक 16 साल की लड़की को कानून 'बाल' मानता है। उसकी सहमति अक्सर पारिवारिक दबाव, सामाजिक अपेक्षाओं और शक्ति असंतुलन की स्थिति में होती है।

अब जानिए क्या हैं कानूनी प्रावधान?

पॉक्सो एक्ट (Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012) के तहत यदि कोई वयस्क 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाता है तो यह अपराध माना जाता है। भले ही नाबालिग ने सहमति दी हो। अदालतों ने स्पष्ट किया है कि नाबालिग की सहमति कानून में किसी बचाव (defence) के रूप में मान्य नहीं है। सजा में आमतौर पर जेल, जुर्माना या फिर दोनों हो सकते हैं। सजा अपराध की गंभीरता पर निर्भर करती है।